एक दिन ऐसा न गुज़रा जब तेरी ख़्वाहिश न की
हो मुहब्बत मुझसे तुझको पर ये फरमाइश न की
ज़ुल्म सहते ही गए हमने कभी शोरिश न की
अपने थे वो सिर्फ अपने इसलिए रंजिश न की
खूब वो करते सितम हमपे तो ज़ुल्मी की तरह
पर उन्हें बर्बाद करने की कभी साज़िश न की
क्या मिला धोखा हमें इक बार उल्फ़त में ज़रा
दिल लगाने की किसी से फिर कभी लग़्ज़िश न की
दिल में रक्खा है दवामे ज़िंदगी ही मानकर
जो मिले हैं ज़ख़्म उनकी रब कभी नालिश न की
ले गई जिस ओर बहती इक नदी सी चल पड़े
ज़िंदगी को आज़माने की कभी कोशिश न की
ख़ैर-मक़्दम कर्म का हमने किया है रात-दिन
खाक़ होते जिस्म की बेकार आराइश न की
धरती सहरा हो गई सूरज से जलता आसमां
भूलकर भी बादलों ने अब तलक बारिश न की
माँ को उस औलाद ने खर्चा हिसाबों में दिया
परवरिश जिनकी भी करके उसने पैमाइश न की
प्रज्ञा देवले✍️