ग़ज़ल: ख़्वाहिश

एक दिन ऐसा न गुज़रा जब तेरी ख़्वाहिश न की

हो मुहब्बत मुझसे तुझको पर ये फरमाइश न की


ज़ुल्म सहते ही गए हमने कभी शोरिश न की

अपने थे वो सिर्फ अपने इसलिए रंजिश न की


खूब वो करते सितम हमपे तो ज़ुल्मी की तरह

पर उन्हें बर्बाद करने की कभी साज़िश न की


क्या मिला धोखा हमें इक बार उल्फ़त में ज़रा

दिल लगाने की किसी से फिर कभी लग़्ज़िश न की


दिल में रक्खा है दवामे ज़िंदगी ही मानकर

जो मिले हैं ज़ख़्म उनकी रब कभी नालिश न की


ले गई जिस ओर बहती इक नदी सी चल पड़े

ज़िंदगी को आज़माने की कभी कोशिश न की


ख़ैर-मक़्दम कर्म का हमने किया है रात-दिन

खाक़ होते जिस्म की बेकार आराइश न की 


धरती सहरा हो गई सूरज से जलता आसमां

भूलकर भी बादलों ने अब तलक बारिश न की


माँ को उस औलाद ने खर्चा हिसाबों में दिया

परवरिश जिनकी भी करके उसने पैमाइश न की


प्रज्ञा देवले✍️