नमन करूँ श्री राम को, मैं देकर बहु मान।
आज संग देना प्रभु, बालक है नादान।।
था रावण का भ्रात वह, कुंभकर्ण शुभ नाम।
दीर्घ देह धारी असुर, सोना जिसका काम।।
लक्ष्मण मूर्छा से उठे, रावण टूटी आस।
शीश पीटकर वह चला, कुंभकर्ण के पास।।
कहे भ्रात से आज वह, निद्रा त्यागो वीर।
विकट वक्त है आ गया, छूट रहा हिय धीर।।
बहु उपाय से अब जगा, बोला मुख से बैन।
लगे देख कर आपको, जैसे हो बेचैन।।
बोला रावण भ्रात से, सिया हरण की बात।
लड़-लड़ कर रक्षक सभी, खाते गए फिर मात।।
मूर्ख बड़ा तू पाप कर, आया मेरे पास।
जग प्रभु है श्री राम जी, बात बताऊंँ खास।।
आओ मेरे अनुज अब, भर लूँ तुमको अंक।।
पाऊँ जाकर दर्श मैं, प्रभुजी राम मयंक।।
पीकर मदिरा महिष का, कुंभकर्ण कर भोग।
लेकर सेना संग में, चला मिटाने रोग।।
देख विभीषण दौड़ते, चरणों किया प्रणाम।
उर से लगकर बोलते, भक्त बना मैं राम।।
भगा दिया लंकेश ने, मुझे मारकर लात
संग लिया रघुनाथ ने, है बस इतनी बात।।
कुंभकरण ने तब कहा, श्रेष्ठ किया यह काम।
कुलदीपक है भ्रात तू, प्रभु हैं तेरे राम।।
कर्म वचन मन से सदा, जपना प्रभु का नाम।
मैं तो वश में काल के, सूझे मुझे न काम।।
नग पर्वत सब को उठा, करते फेंक प्रहार।
असर नहीं कुछ हो रहा, भारी तन पर भार।।
सुग्रीव पवनसुत सभी, खाते चक्कर आज।
वानर अरु नल नील के, बिगड़ गए सब साज।।
बोले तब श्री राम जी, देखूँ मैं इस बार।
कुंभकरण के वार को, आज करूँ लाचार।।
देख तेज श्री राम का, करे सिंह सा नाद।
छोड़े प्रभु ने बाण तब, धँसे दुष्ट की माद।।
काटी बाहें दुष्ट की, गिरी धरा पर आय।
मुख में बाणों का समूह, प्रभु ने भरा अघाय।।
तीक्ष्ण बाण के वार से, काट दिया तब शीश।
खड़े गगन में देवता, देते बहु आशीष।।
धड़ के दो टुकड़े किए, भारी था तन भार।
कुंभकरण की मौत का, सुना दिया सब सार।।
जीत हुई है सत्य की, झूठ हुआ लाचार।
नष्ट हुआ आतंक है, फैली शांति अपार।
मर्यादा की खान है, रघुकुल के श्रीराम।
युगों युगों से गूँजता, जग में इनका नाम।।
गीता देवी
औरैया, उत्तर प्रदेश