माया नगरी

मेरी जान मुम्बई

जरा ठहरों मैं आई

जुहू, ब्रिज,बान्द्रा हो 

या मरीन ड्राई

तुमने तो सबको 

ख्वाब रंगीन दिखाई

मगर मुझे तुम्हारी 

मायानगरी न रास आई।

बच्चे सभ्यता भूलकर जिंदगी

धुआँ में उडाने लगे है

संस्कृति की छाप दिलों 

दिमाग से मिटाने लगे है

हमसे बेप्रदा होकर 

नजरे चुराने लगे है

ट्यूशन कोचिंग के बहाने किसी

मॉल पे जाने लगे है --

मैं समन्दर का नजारा क्या देखु

नजरों में अब वो आने लगे है

हया आंखों से दूर कपड़े 

घुटनों तक सिमट गये है---

तहज़ीब उनकों आया नहीं

या हम उनको सिखाना भूल गये है

ए वक्त बुरा है या फिर बुरे

हम हो गये है।


लता नायर, वरिष्ठ कवयित्री व शिक्षिका

जनपद-लखनपुर सरगुजा छ०ग०