फ़िर नींद से जागा

कांटों के बीच रहकर भी,

किस तरह  ख़ुश मिज़ाज़ हो,

बारहा सवाल यही फ़ूलों से,

मैं बस पूछता रहा,

बाद जाने के तेरे जो मैं,

फ़िर नींद से जागा,

खुद से ही फिर खुद का

पता मैं पूछता रहा,

लेकर ख़्वाब में ऑंखों ,

रेगे रवां पर रहा चलता,

पैरों में आ गए छाले रह रह,

के इन्हें बस मैं फोड़ता रहा,

क्यों की उसने बेवफाई मेरे,

दिल से खेल खेल  कर,

सवाल रह रह के मेरे ज़हन

में यही  बस घुमता रहा,

वो समझते रहे कि हमें रोना,

ही नहीं आता मुश्ताक़,

इश्क़ की हर बून्द को मैं,

वापस लहु में घोलता रहा,


डॉ. मुश्ताक़ अहमद शाह

"सहज़" हरदा मध्यप्रदेश।