पर्यावरण शब्द का प्रचलन तो नया है, पर इससे जुड़ी चिंता या चेतना नई नहीं है। पर्यावरण हवा, पानी, पर्वत, नदी, जंगल, वनस्पति, पशु-पक्षी आदि के समन्वित रूप से है। यह सब सदियों से प्रकृति प्रेम की रूप में हमारे चिंतन, संस्कार में मौजूद रहे हैं। वर्तमान समय में प्रत्येक मनुष्य पर्यावरण को लेकर चिंतित तो है पर पर्यावरण को बचाने में सक्रिय सहभागी नहीं है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कि देश में भगत सिंह और राजगुरु जैसे देशभक्त पैदा तो होने चाहिए परंतु अपने घर में ना होकर पड़ोसी के घर में होने चाहिए। आज प्रत्येक आदमी को स्वच्छ परिवेश, स्वच्छ गलियां, सड़कें और स्वच्छ पर्यावरण तो चाहिए परंतु साफ करने वाला भी कोई और होना चाहिए। यह ठीक वैसा ही है जैसे दुनिया को सब लोग सुधारना चाहते हैं मगर अपने को कोई नहीं।
मानव का विकास पर्यावरण के दोहन के मूल पर हो रहा है। आगे हम विकास की ओर दौड़ रहे हैं, पीछे से विनाश बड़ा आ रहा है। आदिकाल से मनुष्य और पर्यावरण का अन्योन्याश्रय संबंध रहा है। वर्तमान समय में सबसे चिंताजनक समस्याओं में से एक पर्यावरण की समस्या है। यह समस्या मनुष्य प्रकृति से प्राकृतिक संसाधनों के अनर्गल दोहन से उत्पन्न हुआ है। पशु-पक्षी, जीव-जंतु, पेड़ पौधे, नदी-तलाब, खेत-खलिहान आदि से हमारे समाज का निर्माण हुआ है। मनुष्य अपनी सुविधा संपन्न जीवन जीने के लिए इन सभी का दोहन करता है। पर्यावरण के क्षय के कारण स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी उत्पन्न हो रही है। बेतहाशा प्रकृति के शोषण का दुष्परिणाम भी ग्लोबल वार्मिंग, तेजाबी वर्षा, वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, भूस्खलन, मृदा प्रदूषण, रासायनिक प्रदूषण, समुद्री तूफान आदि के रूप में सामने आने लगा है।
सम्पूर्ण ब्रह्मांड में पृथ्वी एक ऐसा ज्ञात ग्रह है जिस पर जीवन पाया जाता है। जीवन को बचाये रखने के लिये पृथ्वी की प्राकृतिक संपत्ति को बनाये रखना बहुत जरूरी है। इस पृथ्वी पर सबसे बुद्धिमान कृति इंसान है। धरती पर स्वाश्वत जीवन के खतरा को कुछ छोटे उपायों को अपनाकर कम किया जा सकता है, जैसे पेड़-पौधे लगाना, वनों की कटाई को रोकना, वायु प्रदूषण को रोकने के लिये वाहनों के इस्तेमाल को कम करना, बिजली के गैर-जरुरी इस्तेमाल को घटाने के द्वारा ऊर्जा संरक्षण को बढ़ाना। यही छोटे कदम बड़े कदम बन सकते हैं। अगर इसे पूरे विश्वभर के द्वारा एक साथ अनुसरण किया जाये। वायु प्रदूषण, गरीब कचरे का प्रबंधन, बढ़ रही पानी की कमी, गिरते भूजल लेबल, जल प्रदूषण, संरक्षण और वनों की गुणवत्ता, जैव विविधता के नुकसान, और भूमि का क्षरण प्रमुख पर्यावरणीय मुद्दों में से कुछ भारत की प्रमुख समस्या है।
नदी पर हम बांध बनाने की बात बातें करते हैं। नदियों को जोड़ने की बात करते हैं। किंतु उसकी सफाई पर विशेष ध्यान नहीं देते। जलीय जीव विलुप्त होने की स्थिति में है। नदियों की गहराई विभिन्न जलीय जीवों को आकर्षित करती है। घड़ियाल, डॉल्फिन और मगरमच्छ ठंडे एरिया में नहीं रहना चाहते हैं, जहां छोटी मछली मिलती है। जलवायु परिवर्तन से विनाश की स्थिति सामने आएगी। इससे बाढ़ और सूखा दोनों स्थिति उत्पन्न होती है। 2050 तक समुंद्र जल मग्न हो जाएगा। इससे नदियों के किनारे बसने वाला सभ्यता स्वतः ही नष्ट हो जाएगी। कृषि उत्पादकता प्रभावित होगी।
भारतीय संस्कृति के अनुसार वृक्षारोपण को पवित्र धर्म मानते हुए एक पौधे को कई पुत्रों के बराबर माना है और उनको नष्ट करने को पाप कहा गया है। हमारे पूर्वज समूची प्रकृति को ही देव स्वरूप देखते थे। प्राचीन काल से मनुष्य के जीवन में पशुओं तथा वन्य जीव-धारियों के संरक्षण के उद्देश्य से देवी-देवताओं की सवारी के रूप में संबोधित किया गया है।
वृक्ष कितने भाग्यशाली हैं जो परोपकार के लिए जीते हैं। इनकी महानता है कि यह धूप-ताप, आंधी व वर्षा को सहन करके भी हमारी रक्षा करते हैं। जंगलों का विनाश राष्ट्रों के लिए तथा मानव जाति के लिए सबसे खतरनाक है। समाज का कल्याण वनस्पतियों पर निर्भर है और प्राकृतिक पर्यावरण के प्रदूषण का कारण और वनस्पति के विनाश के कारण राष्ट्र को बर्बाद करने वाली अनेक बीमारियां पैदा हो जाती है। तब चिकित्सीय वनस्पति की प्रकृति में अभिवृद्धि करके मानवीय रोगों को ठीक किया जा सकता है।
दुनिया के सभी देश धन का घमंड छोड़ पूरी धून के साथ मानव निर्मित पर्यावरण के सुधार में इतनी ईमानदारी, समझदारी और प्रतिबद्धता के साथ जुट जाए ताकि कुदरत के घरों में भी बचे और हमारे आर्थिक सामाजिक व निजी खुशियां भी। कुदरत से जितना और जैसे ले उसे कम-से-कम उतना और वैसे ही लौटाए। समय रहते नहीं चेते तो अज्ञात बीमारी का महामारी के रूप में फैलना सम्भव है। अगर जनसंख्या दबाव को नियंत्रित तथा पर्यावरण को संरक्षित नही किया गया तो दीर्घकालीन समय में कुछ ऐसे रोग उत्पन्न हो सकते हैं, जिसका इलाज ही संभव न हो। ऐसे में पृथ्वी के प्राणियों के लिए अत्यंत दुखदायी होगा। अतः पृथ्वी को बचाने के लिए जो भी उपाय हमें अपनाना पड़े उसे त्वरित निर्णय लेकर करनी चाहिए।
साफ वातावरण फ्री में नहीं मिलेगी। हमें प्रकृति वातावरण के स्वच्छ बनाने के लिए निवेश करना होगा। इससे सरकार की सहमति एवं जनसाधारण की भागीदारी होनी जरूरी है। पर्यावरण को पूर्वजों से जुड़ना होगा। पेड़ फल भी देगा। छाया भी देगा और लकड़ी भी। पेड़ लगाने से रोजगार और उत्पादकता में वृद्धि होगी। भारत ने प्रकृति से प्रेम करना दुनिया को सिखाता रहा है। आज हम ही उदासीन हो गए हैं। बढ़ती जनसंख्या सभी समस्याओं की जड़ है। प्रभावपूर्ण नीति लानी होगी। संसाधनों का प्रबंधन ठीक करना होगा। पर्यावरण को स्वच्छ और संरक्षित करना होगा। किसी ने ठीक ही कहा है कि 'पेड़ लगाओ तो फल मिलेगा, आज नहीं तो कल मिलेगा।'
डॉ. नन्द किशोर साह
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इटावा