अनंत संभावनाओं का
आसमान स्वयं में,
मैं, रज कण साध लेता
जब खुद को,
'शिवलिंग' में पूजा जाता,
मैं रज कण नित बढ़कर
पर्वत सा गगन को छूता जाता,
जब विस्तृत अपना आकार मैं करता,
धरती का मैं अंग हो जाता,
फूट जाते कितने अंकुर
पुष्पों का मैं रूप सजाता,
कभी बनकर धान की बाली
कितनों की मैं भूख मिटाता,
कभी जो क्षोंभ से भर जाऊं
नदियों का मैं रूप हो जाता,
निकल कर मेरी आंखों से
झरना निशदिन बहता जाता,
मुझ सम ही मानव का मन है
और उस का सुंदर श्रम,
भटक गया जो अंधेरे में
तिमिर में छुप जाता उसका अंग,
फिर विनाश का रण केवल
कांप उठे यह भू लोक,
मेरा अंतस पूछता मुझसे
अनगिनत क्यों तेरा रूप?
निज श्रम से सिंचित करके,
यह कवि कण भी
विराट होगा,
पुष्पित मानवता होगी,
भास्कर सम ललाट होगा ।।
कवयित्री - अंजनी द्विवेदी ( काव्या)
देवरिया , उत्तर प्रदेश