मनभावन हैं काले बादल।
धरित्री की उर तपन को करते दूर,
मृदु सलोने प्यारे बादल।
अचला झूमी हरे आवरण में,
द्रुम दल को नहलाते बादल।
नन्हीं द्रुवा पर बूँद बरसाते,
धरिणी को सजाते बादल।
लहू की पंचाग्नि से सींचते धरा को,
उन अन्नदाता को लुभाते बादल।
पत्रहीना वल्लरी भी हुई सुरभित,
चातक को स्वाति बूँद दे जाते बादल।
भिन्न भिन्न आकृतियां बनाकर,
चित को चुराते बादल।
सावन में मधु बूँद बरसाकर,
पी का संदेशा लाते बादल।
द्वय हस्त से खुशियां हैं लुटाते,
पर जाने क्यों नीर बहाते बादल?
किसकी आस में हैं तड़पते प्रतिपल,
क्यों क्रंदन गर्जना दामिनी में छुपाते बादल?
सीमाहीन है जो अनन्त विशाल,
किस लघुता के परिचय को तड़पे आज?
विरह वेदना में गरज बरसकर,
औरों को हर्षाते बादल।
रीमा सिन्हा(लखनऊ)