संस्कृत से संस्कृति हमारी हिंदी से हिंदुस्तान


"सारा जहां यह जनता है , यही हमारी पहचान है,
संस्कृत से संस्कृति हमारी, हिंदी से हिंदुस्तान है।"
हिन्दी में बंगला का वैभव है, गुजराती का संजीवनी है, मराठी का चुहल हैं, कन्नड़ की मधुरता है और संस्कृत का अजय श्रोत हैं,  प्रकृति ने इसका श्रृंगार किया है, उर्दू ने इसकी हाथों में मेहंदी लगायी हैं। यह आर्यों के स्वर में गाती है, जिसके बारे में कहा गया है-
"हिन्दी है भारत की वाणी, हिन्दी है जन-जन की भाषा,
हिन्दी रहे संजोएं शाश्वत,सत्यं- शिवम् - सुंदरम् अभिलाषा।"
 
स्वतंत्रता के सूर्योदय के साथ जिस हिन्दी को भारत मां  का बिन्दी बनना चाहिए, उस हिन्दी की हालत आज़ादी के 73 वर्ष बाद भी गुलामी के 200 वर्षों से बदतर सिद्ध हो रही है, जिस हिन्दी को आगे बढ़ाने के लिए अहिन्दी भाषी बंगाली राजा राममोहन राय, ब्रह्म समाज के नेता केशवचन्द्र सेन, सुभाषचंद्र बोस और राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने आस्था की दीप जलायी ,वह हिन्दी आज अपनी घर में ही बिलख रही हैं। लोगों के उम्मीद थी कि अंग्रेजों के जाने के साथ अंग्रेजी विदा हो जायेगी, लेकिन सामंती मानसिकता वाले नौकरशाहों के छल-छद्म से अंगेज तो गए परन्तु काले लोगों की घृणित मानसिकता ने हिन्दी को अपमानित करने की बीड़ा उठा लिया। सचमुच आज हिन्दी अपनों से हारी है अब हिन्दी अस्मिता की पहचान नहीं हैं। राष्ट्रीय एकता की सेतु नहीं हैं। भारतीय संस्कृति की समग्र साधना नहीं है, उनके लिए हिन्दी वोट लेने का माध्यम तो है, लेकिन राष्ट्र निर्माण का संसाधन नहीं। हिन्दी की वर्तमान स्थिति यह बन गयी है कि- "बदनाम रहे बराती मगर डोली तो कहारों ने लूटा।"


भारत के संविधान में देवनागरी लिपि में हिंदी को संघ की राजभाषा घोषित किया गया है (अनुच्छेद 343(1))। हिंदी की गिनती भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल 22 भाषाओं में की जाती है। भारतीय संविधान में व्यवस्था है कि केंद्र सरकार की पत्राचार की भाषा हिंदी और अंग्रेजी होगी। यह विचार किया गया था कि 1965 तक हिंदी पूर्णतः केंद्र सरकार के कामकाज की भाषा बन जाएगी (अनुच्छेद 344 (2) और अनुच्छेद 351 में वर्णित निदेशों के अनुसार), साथ में राज्य सरकारें अपनी पंसद की भाषा में कामकाज संचालित करने के लिए स्वतंत्र होंगी। लेकिन राजभाषा अधिनियम (1963) को पारित करके यह व्यवस्था की गई कि सभी सरकारी प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी का प्रयोग भी अनिश्चित काल के लिए जारी रखा जाए। अतः अब भी सरकारी दस्तावेजों, न्यायालयों आदि में अंग्रेजी का इस्तेमाल होता है। हालांकि, हिंदी के विस्तार के संबंध में संवैधानिक निर्देश बरकरार रखा गया।


अंग्रेजों के जमाने में केंद्रीय पदाधिकारियों के लिए क्षेत्रीय भारतीय भाषाओं का ज्ञान आवश्यक था परंतु आज़ादी के बाद अंग्रेजी भाषा का ज्ञान आवश्यक कर दिया गया। गुलामी के दिनों में हम आधे गुलाम थे, परन्तु आज़ादी मिलते ही हम पूरे गुलाम हो गये। अब अंग्रेजी मम्मी-डैडी की संस्कृति  गांव के चौपाल तक पहुंच गयी। कुकुरमुत्ते की तरह उग रहा अंग्रेजी स्कूल ग्रामीण भारतीय संस्कृति को विनष्ट करने पर तुले हैं। जिस हिन्दी में वाल्मीकि की आत्मा बसती है, वह सांस्कृतिक मूल्य बोध आज गांवों में भी तोरोहित हो रही हैं। कितनी कारुणिक त्रासदी है कि आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी गांव का आदमी संसद के दर्शक दीर्घा में बैठकर अपने ही निर्वाचित जनप्रतिनिधि की भाषा नहीं समझ सकता है। आज संसद की कार्यवाही अंग्रेजी में होती  है। हिन्दी भाषी सांसदों को भी अंग्रेजी में बोलता देख कर हमारी हिन्दी शर्मिंदा है। आज भी संसद अंग्रजो का पार्लियामेंट बन कर रहा गया हैं। कितनी दुखद बात है कि स्वतंत्र भारत का प्रमाणिक संविधान भी अंग्रेजी में है। कब तक कहते रहेंगे-
" वक़्त आने पर तुझे बताएंगे ऐ आसमां,
अभी से हम क्या बताएं,क्या हमारे दिल में है?"
 
अभी और कभी के सवाल ने हिन्दी को बहुत छला हैं। कुछ चंद नौकरशाहों ने अपने बेटे-बिटियों के भविष्य को अंग्रेजी माध्यम से सुरक्षित रखने के लिए एक षड्यंत्र के तहत हिन्दी के साथ अन्याय किया हैं। गांव के लगभग 80 फ़ीसदी लोग उच्च नौकरियों में जाने से वंचित रह जाते हैं और अंग्रेजी हिंदी पर हावी हो जाती है।  राष्टभाषा केंद्रीय सरकार की कामकाज की भाषा होती है। हमने संविधान में हिन्दी को राजभाषा के रूप में बहुत पहले ही स्वीकार कर लिया हैं,लेकिन व्यवहार के क्षेत्र में वह अभी तक सम्मानित तथा अपेक्षित स्थान नहीं मिल पाया हैं। आज़ादी के बाद हमने सोचा था कि हमारी अपनी भाषा होगी और उसके माध्यम से हमारी आत्मिक शक्ति का विकास होगा, लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हुआ। हिन्दी यहाँ की बहुसंख्यकों की एक समवृद्ध भाषा हैं। अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या मात्र 2 फीसदी हैं, लेकिन दुर्भाग्य है कि आज तक हिन्दी सलाहकार बोर्ड का गठन तो हुआ, लेकिन हिन्दी के ठेकेदारों ने ही उसके साथ घोर अन्याय किया है। डा. विद्या निवास मिश्र के शब्दों में "हिन्दी आज अपने लोगों से हारी हैं।" हिन्दी का कार्यक्षेत्र काफी सिमट गया है। हिन्दी षड़यंत्र के तहत ही आजतक अपने अधिकार से वंचित है। मैथलीशरण गुप्त ने कहा हैं-
" यह अंग्रेजी की सखी न भारत की रानी है,
अविलंब इसे सवर्णिम सिहांसन दो।"
हिन्दी हमारी मातृभाषा है और इसके बिना हमारे समाज और संस्कृति का विकास संभव नहीं हैं। गोपाल सिंह नेपाली के शब्दों में-
"इस भाषा में हर मीरा को मोहन की माला जपने दो,
  हिन्दी है भारत की वाणी तो अपने आप पनपने दो।"


चूंकि हिन्दी भाषा साहित्य भारत वर्ष की अन्य सभी भाषाओं से अलग है अतः आज आवश्यकता इस बात की है कि हम भाषा को भुला दें तथा राष्ट्रीय अखंडता के लिए हिन्दी को बिना किसी विरोध के राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करें तथा हिन्दी भाषा को ही अपने दैनिक जीवन में प्रयोग करें। यह बात सच है कि अहिन्दी भाषा-भाषी व्यक्तियों के लिए इसमें थोड़ी परेशानी अवश्य होगी, फिर भी जिस देश के लिए न जाने कितने जवानों ने स्वयं को बलिदान कर दिया, उस देश के लिए यदि हमें मातृभाषा के प्रति मोहभंग करना पड़े तथा थोड़ी सी परेशानी उठानी पड़े तो उन जवानों के त्याग की तुलना में हमारा त्याग बहुत कम होगा। हमें यह त्याग करना पड़ेगा क्योंकि राष्ट्र की एकता आज हमारे लिए सर्वोंपरि हैं। हमें हिन्दी से राष्ट्रीय एकता की भावना को बल  मिलेगा और हमारी राष्ट्रीय एकता विकसित होगी। सचमुच-
'हिन्दी है भारत मां की बिन्दी,
  हिन्दी पर अभिमान करें हम,
  ज्योतिगर्मय पथ करती है यह,
  हिन्दी का सम्मान करें हम।'


स्वतंत्रता के बाद के इतिहास के कालखण्ड पर दृष्टिपात करें तो हिंदी के बारे में हमारे देश की सरकारों का वही दृष्टिकोण रहा है जो स्वतंत्रता पूर्व या स्वतंत्रता के एकदम बाद कांग्रेस का इसके प्रति था। आज भी यह देखकर दुख होता है कि हिंदुस्तानी नाम की जो भाषा प्रचलन में आई है उसने हिंदी को बहुत पीछे धकेल दिया है। पूरे देश में अंग्रेजी और उर्दू मिश्रित भाषा का प्रचलन समाचार पत्र-पत्रिकाओं में भी तेजी से बढ़ा है। इसका परिणाम ये आया है कि नई पीढ़ी हिंदी के बारे में बहुत अधिक नही जानती। विदेशी भाषा अंग्रेजी हमारी शिक्षा पद्घति का आधार बनी बैठी है, जो हमारी दासता रूपी मानसिकता की प्रतीक है। यदि राष्ट्र भाषा हिन्दी को प्रारंभ से फलने फूलने का अवसर दिया जाता तो आज भारत में जो भाषाई दंगे होते हैं, वो कदापि नही होते। भाषा को राजनीतिज्ञों ने अपनी राजनीति को चमकाने के लिए एक हथियार के रूप में प्रयोग किया है। महाराष्ट्र जैसे देशभक्तों के प्रांत में भाषा के नाम पर महाराष्ट्र उत्तर भारतीयों पर हमला करते रहना,  उसे कतई भी उचित नही कहा जा सकता। भाषा के नाम पर महाराष्ट्र से बिहारियों को निकालना और उत्तर भारतीयों के साथ होने वाला हिंसाचार हमारे सामने जिस प्रकार आ रहा है उससे आने वाले कल का एक भयानक चित्र रह-रहकर उभरता रहा है। एक कवि के शब्दों में हिंदी तो-
"एकता और अखंडता ही हमारे देश की पहचान है,
हिंदुस्तानी है हम और हिंदी हमारी जुबां है।"


भारत एक कृषि प्रधान देश है। किंतु फिर यहां के किसान के लिए टीवी और रेडियो पर जो वार्ताएं प्रसारित की जाती हैं वे अक्सर या तो अंग्रेजी में होती हैं या अंग्रेजी प्रधान शब्दों से भरी हुई होती हैं। इन वार्ताओं को भारत का किसान समझ नही पाता इसलिए सुनना भी नही चाहता। यही कारण है कि टीवी और रेडियो पर आयोजित की जाने वाली इन वार्ताओं का अपेक्षित परिणाम देश में देखने को नही मिल रहा है। राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरोये रखने के लिए नही भाषा नीति की आवश्यकता है। इसके लिए शिक्षा का संस्कारों पर आधारित होना नितांत आवश्यक है। संस्कारित और शिक्षित नागरिक तैयार करना जिस दिन हमारी शिक्षा नीति का उद्देश्य हो जाएगा उसी दिन इस देश से कितनी ही समस्याओं का समाधान हो जाएगा। नई शिक्षा नीति तो सरकार ला रही है लेकिन उसकी नीतियां अब भी ढोल मोल वाली ही दिख रही है क्योंकि उच्च शिक्षा में अब भी हिन्दी अधिकार  का अधिकार की लड़ाई जारी ही रहेगी। हाल ही में जिस तरह से  यू पी एस सी के परिणाम में हिंदी माध्यम का परिणाम गर्त में गया है उससे हिंदी माध्यम के छात्रों के आशुओं में हिंदी भी बह कर निकल रही है और इसके लिए न ही सरकार और न ही बोर्ड ही कुछ कर रही है। उम्मीद है कि हिंदी भी एक दिन पल्लवित पुष्पित होगी-
"बदलेंगे ये हालात हमारे , ये धरा भी मुस्कुराएगी,
जन जन की भाषा हिंदी , जब दिल से अपनाई जाएगी।"


वैसे तो हिन्दी विदेशों में मारीशस, फीजी, सूरीनाम तक पल्लवित पुष्पित है। सुदूर अमेरिका से यूरोप तक इसका ध्वज लहरा रहा है। हालैंड में इसकी तो पढ़ायी के साथ- साथ शोध कार्य भी हो रहा हैं। इस तरह हिन्दी विदेशों में लगातार अपना स्थान बना रही, परन्तु आज अपने ही घरों, हिन्दी प्रदेशों में अंग्रेजी के आगे हार गयी है। अंग्रेजी मानसिकता ने इसे निर्वासन दे दिया है। इतने हिन्दी भाषियों के रहते आखिर कब तक अभिशप्त रहेगी हिन्दी।
एक कवि के शब्दों में-
'" हिन्दी तो सकल जनता की अभिलाषा है,
  संकल्प है, सपना है, सबकी आशा है,
  भारत को राष्ट्र बनाने के लिए हिन्दी
   ही  एकमात्र भाषा हैं।"


   --  नृपेंद्र अभिषेक नृप
         छपरा , बिहार
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