दर्द पहाड़ों सा सहती है बूढ़ी माँ।


डरी डरी सहमी रहती है बूढ़ी माँ,
कोई बात नहीं करती है बूढ़ी माँ।


बेटे बहुत सयाने निकले हैं उसके,
क्या कहना चुप ही रहती है बूढ़ी माँ।



अपने ही घर में अपनों के बीच यहाँ,
एक परायापन सहती है बूढ़ी माँ।


दूध दही देती थी कल तक बच्चों को,
आँसू आज पिया करती है बूढ़ी माँ।


घर पर अब अधिकार है बेटे -बहुओं का,
टुकुर-टुकुर देखा करती है बूढ़ी माँ।


झिड़की ताने ही आए उसके हिस्से,
सजा ये क्यों सहती रहती है बूढ़ी माँ।


वृद्ध हड्डियों में कितनी सी जान मगर,
दर्द पहाड़ों सा सहती है बूढ़ी माँ।


एक बोझ सी बनी हुई अपने घर में,
मगर दुआ देती रहती है बूढ़ी माँ।


घर के इक कोने में अपने बिस्तर पर,
घुटन तनावों को सहती है बूढ़ी माँ।


अपने प्राणों से जिस गुलशन को सींचा,
आज वहीं झुलसा करती है बूढ़ी माँ।


डॉ सीमा विजयवर्गीय