दर‌ मंदिर के बैठकर बेच रही है फूल

दर‌  मंदिर  के  बैठकर  बेच  रही  है   फूल,

फटे वसन में झेलती कामुक नज़रों के शूल।


झुलसा कुंदन तन उसका थी किस्मत की मारी,

सुंदर मुख कोमल पर झलक रही लाचारी,

सर्दी गर्मी धूप छांव सब हैं जीवन के मूल।

फटे वसन में झेलती कामुक नज़रों के शूल


कामुक नज़रों के शूल झेलती थी बेचारी,

खड़े खरीदें पुष्प दृष्टि अंग अंग पर मारी ,

धर बाहर को बेटी  बहना सब जाते हैं भूल,

फटे वसन में झेलती कामुक नज़रों के शूल।


मुख कमल पर स्वेद जल मोती सा झलक रहा,

जिंदगी की कशमकश में तिमिर सा ढल रहा,

आस यही ऐसा दिन आए जब धूल बनेगा फूल।

फटे वसन में झेलती कामुक नज़रों के शूल


गोद में सुंदर ललन का मुख देख देखकर जीती,

दंतुरित मुस्कान पर कुर्बान कर देती है आप बीती,

रहती मगन कर परिश्रम आशादीप जलाए मूल।

फटे वसन में झेलती कामुक नज़रों के शूल।


धूल मिट्टी से सना मुख आंचल से चिपकाए,

तीखी तिरछी नजरों से कैसे खुद को बचाएं,

मानकर नियति विडम्बना नहीं अलका देती तूल।

फटे वसन में झेलती कामुक नज़रों के शूल।


दर‌  मंदिर  के  बैठकर  बेच  रही  है   फूल,

फटे वसन में झेलती कामुक नज़रों के शूल।


डॉ0 अलका गुप्ता 'प्रियदर्शिनी''

लखनऊ उत्तर प्रदेश।