महिला श्रम की सराहना है गोल्डिन को नोबेल

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री क्लाउडिया गोल्डिन को अर्थशास्त्र का प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार मिलना एक तरह से दुनिया की आधी आबादी के नजरंदाज कर दिये गये श्रम को सराहना व पुरस्कृत करना है। अमेरिका की गोल्डिन की विश्व भर में आर्थिक इतिहासकार व श्रम अर्थशास्त्री के रूप में बहुत प्रतिष्ठा है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय की प्रोफेसर गोल्डिन ने पिछली लगभग दो सदियों के आंकड़ों के अध्ययन के आधार पर उन कारणों का पता किया है जिनके चलते श्रम के मामले में महिलाएं पक्षपात का शिकार बनी हैं।

 उन्होंने बतलाया है कि विभिन्न कारणों से महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले कम पारिश्रमिक मिलता है। वैश्विक श्रम बाजार में महिलाओं का प्रतिनिधित्व चिंताजनक रूप से अल्प है। उनका अध्ययन यह भी बतलाता है कि कमाई और रोजगार दरों में लिंग अंतर कैसे और क्यों बदलता चला गया है। अल्फ्रेड नोबेल की स्मृति में दिया जाने वाला यह पुरस्कार अब तक 92 अर्थशास्त्रियों को मिला है। गोल्डिन के पहले तक केवल दो महिलाएं ही यह पुरस्कार पा सकी हैं। 

प्रिंसटन यूनिवर्सिटी प्रेस ने उनके बारे में कहा है कि-आर्थिक इतिहासकार और श्रम अर्थशास्त्री के रूप में गोल्डिन के शोध में महिला श्रम शक्ति, कमाई में जेंडर गैप, तकनीकी परिवर्तन, शिक्षा और आव्रजन सहित अनेक महत्वपूर्ण विषयों की एक विस्तृत श्रृंखला शामिल है। उनके अधिकांश शोध अतीत के दृष्टिकोण से वर्तमान की व्याख्या करते हैं और चिंता के वर्तमान मुद्दों की उत्पत्ति की पड़ताल करते हैं। 

उनकी सबसे हालिया पुस्तक कैरियर एंड फैमिली महिलाओं की शताब्दी समानता की ओर लंबी यात्रा है। नोबेल समिति ने पुरस्कार की घोषणा के दौरान कहा कि- गोल्डिन ने अपने शोध से सदियों से महिलाओं की कमाई और श्रम बाजार के परिणामों का पहला व्यापक विवरण प्रदान किया है। उनके शोध से नए पैटर्न का पता चलता है, परिवर्तन के कारणों की पहचान होती है और जेंडर गैप के बारे में भी जानकारी मिलती है।

बेशक, गोल्डिन महिला श्रम के बारे में 200 वर्षों के डेटा के आधार पर जो सच्चाइयां अपने निष्कर्षों के रूप में सामने लाई हैं, वे और भी कई सदियां पुरानी हैं और आज भी नंगी आंखों से देखकर ही यकीन करने के काबिल हैं। आधुनिकता और समानता पर आधारित लोकतांत्रिक प्रणाली ज्यादातर देशों में चलन में आ जाने के बावजूद आज भी यह एक ठोस वास्तविकता है कि महिलाएं श्रम और मेहनताने दोनों ही मामलों में भारी भेदभाव की शिकार हैं। 

प्रकारांतर से चाहे अविकसित देश हों या विकासशील या विकसित, तीनों ही तरह की परिस्थितियां किसी न किसी तरीके से उन्हें उनके हक का पारिश्रमिक लेने से वंचित करती हैं। जब वे काम करती हैं तो इस भेदभाव का शिकार तो होती ही हैं, काम न मिलने या छूट जाने जैसी स्थितियों में भी उनके हिस्से में पुरुषों के मुकाबले अधिक दुश्वारियां आती हैं। काम देते वक्त वे नियोक्ता की आखिरी पसंद होती हैं तो काम के दौरान वेतन, भत्ते, छुट्टी के मामलों में उनके साथ गैरबराबरी पूर्ण व्यवहार होता है। 

इतना ही नहीं, काम से हटाने या छंटनी के समय वे पहली पसंद बन जाती हैं। भारत सहित तीसरी दुनिया कहे जाने वाले देशों- एशिया, अफ्रीका एवं लातिनी अमेरिका में गोल्डिन के निष्कर्ष बहुत मुखर और स्पष्ट होकर सामने आते हैं। पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की बेरोजगारी दर कहीं अधिक है। उन्हें पहले से ही अर्द्ध कुशल या अकुशल मानकर उन्हें समान काम के लिये भी कम वेतन दिया जाता है। 

भारत सहित जहां भी पितृसत्तात्मक व सामंती सामाजिक व्यवस्था है, वहां कामकाजी महिलाएं उपहास व आलोचना की पात्र बनकर रह जाती हैं। बड़ी संख्या में पढ़ी-लिखी महिलाओं का जीवन घरू काम करते हुए गुजर जाता है। पहले से ही माना जाता है कि उनके जीवन की सार्थकता ब्याह के बाद पति व ससुराल वालों की सेवा-टहल और बच्चों की परवरिश करने में हैं। यह किसी एक धर्म की बात नहीं है। अधिकतर सम्प्रदायों व समुदायों की महिलाओं के बाबत यही यथार्थ है। बड़ी संख्या में लोगों की यह भी मान्यता है कि महिलाएं मौज-मस्ती या अपने फैशन के खर्चे पूरे करने के लिये काम करने घरों से निकलती हैं।

हाल ही में भारत के सन्दर्भ में ये आंकड़े सामने आये थे कि 2018-19 से 2022-23 के बीच जितने लोगों ने नियमित नौकरियां खोईं, उनमें ज्यादातर महिलाएं थीं। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकानॉमी की इस अवधि की रिपोर्ट के अनुसार 31 लाख लोगों ने पक्की नौकरियां खोई हैं। इनमें पुरुष 5 लाख तो महिलाएं 26 लाख हैं। ऐसे ही, छोटे कारोबार एवं दैनिक वेतन पर काम करने वालों में 1.35 करोड़ रोजगार घटे हैं। इनमें 52 लाख महिलाएं तथा 83 लाख पुरुष थे। 

कामकाजी महिलाओं का औसत बेहद चिंतनीय है और उनके सशक्तिकरण के ठोस उपाय करने में ज्यादातर अविकसित व विकासशील देशों की कोई भी अर्थप्रणाली नाकाम साबित हुई है। पश्चिमी देशों में स्थिति फिर भी काफी ठीक है लेकिन वैश्विक जनसंख्या का बड़ा हिस्सा तीसरी दुनिया में बसता है, महिलाओं के सन्दर्भ में गोल्डिन के शोध बहुत महत्वपूर्ण हो जाते हैं। 

जब तक आधी आबादी के लिये आर्थिक दृष्टिकोण से समानतापूर्ण वातावरण नहीं बनाया जाता, विकास का लक्ष्य पहुंच से बाहर ही रहेगा। आर्थिक विज्ञान पुरस्कार समिति के प्रेसिडेंट जैकब स्वेन्सन ने सच ही कहा है कि- श्रम बाजार में महिलाओं की भूमिका को समझना समाज के लिए महत्वपूर्ण है। गोल्डिन के शोध से वे बाधाओं को दूर हो सकेंगी जिनका आज महिलाएं सामना कर रही हैं।गोल्डिन को नोबेल देना विकास में भागीदारी निभाती महिलाओं को पुरस्कृत करने जैसा है।