शब्दों के लहू

कलम की धार से शब्दों के लहू बहते हैं,

सच कहूँ ज़ख्म-ए-दिल खुद ही भरते

हैं।


जाने क्यों तबस्सुम है लबों पर मेरे ,

जीते हैं हर रोज़ और रोज़ ही मरते हैं।


सहरा भी सब्ज़गुलज़ार दिखते हैं,

आँखें नम रहती है और हम हँसते हैं।


हाल क़यामत का न पूछो यारों,

दर्द-ए-दिल को हम जन्नत कहते हैं।


बन नासूर चुभते हैं अल्फ़ाज़ तेरे,

मेरे गुलिस्तां में काँटे ही मिलते हैं।


सुना दस्तरस बहुत ऊपर तक है उसकी,

फेरकर मुँह जो हर रोज़ गुज़रते हैं।


नींद आती नहीं पर ग़म ना करना 'रीमा'

हम वो साक़ी हैं जो जाम को तरसते हैं।


डॉ. रीमा सिन्हा (लखनऊ)