हमारे एक मित्र हैं। बहुत दिनों से बीमार चल रहे हैं। बहुत दिनों से बीमार हैं, इसलिए उनसे मिजाजपुर्सी करने का समय नहीं मिल रहा है। ऊपर से आजकल वे सत्ता में भी नहीं है। बिन सत्ता के बंदे किसी काम के नहीं होते हैं। उनके पास कुछ हो न हो समय बहुत होता है। जब मन चाहा तब जाकर मिल लिये। एक दिन उन्हीं के घर की ओर कुछ पड़ गया। सोचा चलो एक साथ दो काम हो जायेंगे। मैं मिलने चला गया।
भाभी जी भाई साहब को टॉनिक पिला रही थीं। मुझे देखते ही उठ खड़ी हुई। न जाने भाभी जी कैसे मेरे मन की बात भांप गई वह कह उठीं - कहते हैं जब दर्द हद से गुजर जाए और दूर-दूर कोई इलाज दिखाई न दे तब दर्द को ही दवा मान लेना चाहिए। शादी की शुरुआत में भाभी जी सामान्य सी महिला लगती थी, अब वह दार्शनिक हो गई हैं।
“ भाभीजी सुना है भाई साहब बीमार हैं, क्या हो गया ?’’ मैंने पूछा।
“क्या बताऊँ, एक महीने से उछल रहे हैं, डाक्टर कहते हैं चुनावेरिया’ हो गया है।“
“नेतागिरी के मच्छर ने काटा होगा।“
“मैं तो हमेशा ‘कछुआ छाप’ लगा के रखती हूं।“
“घर में तो कछुआ छाप हम भी लगाते हैं“
“पर ये बाहर गधों के बीच ही रहते हैं और ढेंच-ढेंचू करते रहते हैं ना।“
“अरे ब्बाप रे ! तब तो तगड़ा इन्फेक्शन होगा !! .... इलाज चल रहा है ?’’
“ दिखवाया तो है, डाक्टर बोले अच्छा हुआ समय पर ले आए वरना केस बिगड़ कर ‘चमगादड़ बनकर उल्टा लटक जाते।“
“ क्या होता है चमगादड़ बनने से?!’’
“उल्टे-सीधे वादे करने लगते हैं। दिखाई-सुनाई कम पड़ता है, खून में ईमानदारी के प्लेटलेट्स बहुत कम हो जाते हैं, लाज-शरम खत्म हो जाती है, दिन-रात खाने की सूझती है, पेट हमेशा खाली महसूस होता है.....।
“जांच करवाई ? कुछ निकला?’’
“इनसे मुश्किल यही है कि जो दिखता हैं वह है नहीं, जो नहीं है, वही दिखता है।“
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, प्रसिद्ध नवयुवा व्यंग्यकार