जाति की ये संकीर्ण गलियां,
ऊपर से है धर्म भी छलिया,
एक नहीं होने देता,
बांटने में ही समय है लेता,
कौन बड़ा है कौन है छोटा,
जाति का जंजाल समेटा,
टीका चंदन कोई लपेटा,
बाहुबल का कोई धौंस है देता,
खुद को कहता ताकत का प्रणेता,
नीचों से हम भी तो बड़े हैं,
जात घमंड के खंभे गड़े हैं,
नीचे वाला किसको गोहराये,
अपना दुखड़ा किसे सुनाये,
दर्द ये अपना किसे बताये,
नीच तो सबसे नीच है रहता,
जातिय घमंड की बात है कहता,
ऊपर वाला बैठे बैठे खाता है,
झूठों का ही गुण गाता है,
बलशाली बल के घमंड में मर गए,
झूठी ताकत के प्रचंड में मर गए,
बाकी को हीनता ने मारा,
रहा नहीं अब कोई सहारा,
तब अनदेखे के पीछे है जाता,
उपवास भी रहता भजन भी गाता,
हक़ अधिकार को नहीं है जानता,
याचक बनकर खाक है छानता,
संविधान पढ़ो और हक को जानो,
बड़ा न छोटा किसी को मानो,
कुछ ही है जो औरों का हिस्सा लेता,
जो एक हमें होने नहीं देता।
राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ छग