ये.. कुछ औरतें

ये कुछ औरतें

कैद चार-दीवारी में ,

बुनतीं हैं सपनें..पकाती हैं ख्वाब..

कुढती रहतीं हैं

गर्म तवे पर

झुलसती बूंदों की तरह ,

पर, पहनती हैं बिंदी !!

ये कुछ औरतें..

सजती हैं..सवंरती हैं.. चटख रंगों में,

इतराती फिरती हैं बनकर "सिंबल"

"हाई-सोसायटी" की ,

पर, भूल जाती हैं

अपनी ही पहचान ,

पहनती हैं बिंदी !!

ये कुछ औरतें..

अनभिज्ञ थी अभी

गृहस्थी से ,

बांध दी जाती हैं "बिंदी" के रिश्तों" से,

औऱ, ढोती रहतीं हैं उन्हें 

उम्र भर ,

पर, पहनती हैं बिंदी !!

ये कुछ औरतें..

नहीं हैं मोहताज बिंदी की ,

क्योंकि ,चमकती हैं स्वयं ही

चांद-सूरज सी

आसमान में,

औऱ छू रही हैं रोज

नई-नई ऊँचाईयों को !!


नमिता गुप्ता "मनसी"

मेरठ , उत्तर प्रदेश