कल मैं आंगन में बैठे-बैठे कुर्सी तोड़ रहा था। इतने में कुछ मित्र आ धमके। इधर-उधर की बात छिड़ी। एक ने कहा, यार तुम तो पढ़-लिकर डॉक्टर बन गए हो। हमारी किस्मत तुम्हारी जैसी कहाँ? हमारी किस्मत में यही मेकानिक के पाने ही लिखे हैं। परसों तुम्हारा समाचार पत्र में लेख पढ़ा। झांसी लक्ष्मीबाई के बहाने स्त्री शक्ति पर क्या दमदार लिखा है। पढ़कर मज़ा आ गया। अब किसे अपनी तारीफ सुनना अच्छा नहीं लगता। मुझे डर था कहीं ये तारीफदार भाग न जाएँ। इसलिए उनके लिए चाय की व्यवस्था करना जरूरी समझा।
चूँकि मैं आंगन में बैठा था, इसलिए पीछे मुड़कर आवाज़ लगाना जरूरी हो गया था। मुड़कर देखा तो माँ नजर आयी। माँ भी न हमेशा कुछ न कुछ काम करती ही रहती है। वह माँ कम काम करने वाली मशीन ज्यादा लगती है। हमेशा खुद को थकाने पर आमदा रहती है। दीदी की ओर देखा तो वह घर भर के नखरे अपने सिर पर ढोती है। कोई भी कभी भी कोई काम कहे मना नहीं करती। बहिन की मासूमियत तो देखते ही बनती है। मैंने तो उसे डाँटने की मशीन बना ली है। जब मन करता है तब डाँट देता हूँ। चूँ तक नहीं करती। कभी-कभी भीतर-बाहर का गुस्सा उस पर उतार देता हूँ। वह चुपचाप सह लेती है। सच कहूँ तो आज मुझमें जो विनम्रता दिखायी देती है उसमें बहिन का बहुत बड़ा योगदान है। वह मुझे राखी बाँधती है। इस नाते मेरे हर ताने सह लेती है। मैंने राखी को पर्व कम अपना पॉवर ज्यादा समझा है। मनमानी करने का। हुड़दंग मचाने का। बता दूँ कि यह आजादी घर में दीदी-बहिन को नहीं है। वे तो कठपुतलियाँ मात्र हैं। आज यहाँ नाचेंगी। कल शादी के बाद अपने ससुराल में नाचेंगी। नाचना ही उनका भाग्य है।
अक्सर माँ कहा करती है, मैं पूरा अपने बाप-दादा पर गया हूँ। उन्हीं की तरह हुकूल चलाता हूँ। ऊँची आवाज़ में बात करता हूँ। डॉँटता-फटकारता हूँ। कभी-कभार हाथ भी उठा देता हूँ। मैं इसे अपने पुरुष होने का लायसेंस समझता हूँ। इसीलिए मुझे घर का चिराग कहा जाता है। घर की दीवारों पर मेरी ही निशानियाँ दिखायी देती हैं। माँ, दीदी-बहिन की तस्वीरें तो आधार कार्ड से बाहर निकल ही नहीं पायीं। हाँ तो मैं चाय के लिए हुकूम देने ही वाला था कि देखा दीदी चाय लेकर आंगन में खड़ी है। यह देख मित्रों ने कहा, चाहे घर हो या बाहर तुम शेर हो शेर। यह सुन मैं आसमान में उड़ने लगा।
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657