हिंदी ही नहीं दुनिया की सभी भाषाओं की कहावतों में भोजन का विशेष स्थान है। बित्ते भर का लगने वाला पेट इंसान से जो न करा दे वह कम है। पेट तो आखिर पेट है! भला भोजन से नहीं चलेगा तो खाक से चलेगा! भोजन की किल्लत हो तो कंगाली में आटा गीला, माँग अधिक आपूर्ति कम हो तो एक अनार सौ बीमार, ऊँट के मुँह में जीरा, बड़ी जमकर भूख लगी हो तो पेट में चूहे दौड़ना, कोई सिर खा रहा हो तो दिमाग का दही करना, किसी को उसकी औकात दिखानी हो तो छठी का दूध याद दिलाना, चारों तरफ लाभ ही लाभ दिखायी दे तो दसों उंगलियाँ घी में होना, बिगड़े हुए काम को दर्शाना हो तो पर गुड़-गोबर करना, किसी की देखा-देखी करने पर खरबूजा खरबूजे को देखकर रंग बदलना, मनचाहा काम पूरा न होने पर अंगूर खट्ठे होना, किसी काम के विलंब को दर्शाना हो तो बीरबल की खिचड़ी पकाना, लालच पैदा होने पर मन में लड्डू फूटना, काम निकालना हो तो मस्का लगाना, किए कराए पर पानी फेरने की बात हो तो रायता फैलाना या फिर किसी को धोखा दिया हो तो जिस थाली में खाया उसी में छेद करना जैसी कहावतों का धड़ल्ले से उपयोग किया जाता है।
इन सभी कहावतों में कहीं न कहीं खाने-पीने की बात का उल्लेख हुआ है। किंतु समस्या हमारे देश के प्रधान से है। वे कहते हैं – न खाऊँगा, न खाने दूँगा। अब उन्हें कौन समझाए कि इंसान पैदा ही खाने के लिए होता है, तो उसे खाने से रोकना सरासर नाइंसाफी नहीं तो और क्या है? अब भला घोड़ा घांस से दोस्ती करेगा तो खायेगा क्या? हमारे देश में लोग पेट के हिसाब से नहीं औकात के हिसाब से खाते हैं। जैसे गरीब है तो रूखा-सूखा, अमीर है तो मक्खन-पनीर। ठीक उसी तरह सबकी अपनी-अपनी भूख और अपना-अपना भोजन होता है।
काम पिशाची वासना, कमीशनखोर कमीशन, टैक्सचोर टैक्स, पुलिस घूस, तो भ्रष्ट नेता-अधिकारी भ्रष्टाचार तो कभी-कभी गाय-गोरू का चारा खाते हैं। जो भी हो खाते जरूर हैं। ऐसे में अगर प्रधान कहें कि न खाऊँगा न खाने दूँगा तो यह बड़ी गलत बात है। अब उन्हें कौन समझाए कि खाना तो जन्म के साथ आने वाला गुण है। कुत्ते की दुम और खाऊ इंसान की फितरत जन्म से ही टेढ़ी होती है। वैसे भी प्रकृति के नियमों के साथ छेड़छाड़ करना खुद के लिए और न समाज के लिए हानिकारक होता है।
जब भूख की अति हो जाती है तो उसे ‘चट करना’ कहते हैं। सामान्य की भूख किसी मालगाड़ी सी और लालसा पिपासुओं की चट करने वाली भूख जापान की सूपरफास्ट ट्रेन सी होती है। अंग्रेजों से पहले भारत सोने की चिड़िया थी। अंग्रेज सोना सारा चट कर गए। बचे-खुचे भारत में पहाड़, पठार, रेगिस्तान, मिट्टी और थोड़े-बहुत जंगल छोड़ गए। इसे भी देश के महान खननकारियों जैसे महानेतागण, कांट्रेक्टर, बाहुबलियों ने खोद-खोद कर अपने स्वार्थ का खनिज चट कर गए।
धरती पर जलराशि और भारत में धनराशि की स्थिति एक जैसी है। जो कुछ बचा है वह सब कागजों की पेंच में फँसा है। इसे एक तरफ से नेतागण दूसरी तरफ से फीताशाही अधिकारीगण दीमक की तरह चट करने में लगे हैं। चट करने का गुण हमारे रगों में हिमोग्लोबिन बनकर दौड़ रहा है। इसलिए देश के प्रधान से मेरी प्रार्थना है कि आप अपना नारा – ‘न खाऊँगा, न खाने दूँगा’ की पुड़िया बनाकर बगल में दबाकर रखें तो ही खाने के आदी हो चुके देश का भला होगा।
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त, मो. नं. 73 8657 8657