द्रवित बन बह जाती है ।

स्त्रियाँ गैस सी होती हैं ।

ना मर्जी का आकार, 

ना मर्जी का आयतन रखती हैं ।

जहां ले जाए हवा,

बस सुगंध सी उस ओर

चल देती हैं ।

स्त्रियाँ गैस सी ,

विस्तारित रहती हैं ।

सब जगह ,पर दिखती  नही हैं ।

बस रच -बस जाती हैं, 

रक्त की तरह देह में, 

सबकों  जिंदा रखती हैं ।

फैली रहती हैं, हाथ में नही आती हैं ।

पर.......

पकड़ों  उसे प्रेम से तो,

भर जाती है, गुब्बारें में  हवा तरह।

 अदृश्य ही रहती हैं ,

परिवार की नजर में, 

अस्तित्व भी कहाँ 

स्वयं का पाती हैं ।

जब दबा दी जाती हैं, 

सहनशीलता की सीमा से पार, 

तो द्रवित बन बह जाती हैं ।


गरिमा राकेश गौतम 'गर्विता '

कोटा,राजस्थान