बतौर अध्यापक मैं अपनी कक्षा में बच्चों के समक्ष हमेशा एक चिर-परिचित वाक्य का जिक्र करता हूँ - "प्रतिकूल परिस्थिति में ही प्रतिभा के प्रसून खिलते हैं।" मेरे इस वाक्योच्चारण का आशय होता है कि बच्चों में यह बात घर कर जाय ; क्योंकि उनमें सुनकर सीखने व करने की क्षमता बड़ी प्रबल होती है।
इस तथ्यपूर्ण वाक्य का सारगर्भित भावार्थ रखने का प्रयास करता हूँ कि उन्हें इसका गूढ़ अर्थ सरलतापूर्वक समझ आ जाय कि जब किसी शख्स की स्थिति प्रतिकूल होती है; यानी समय अनुकूल नहीं होता; और ऐसे समय नकारात्मक मनोपज अधिक हावी होने लगता है। पर यही एक ऐसा अवसर होता है कि जब आदमी स्वविवेक, धैर्य, संयम व श्रम-साहस के साथ अपना कर्म करता है, तो सफलता उसके कदम चूमती है; अर्थात निश्चित तौर पर सफलता मिलती है।
वह सफलता सुकोमल-सुगंधित पुष्प से कम आकर्षक नहीं होती; तब तो यह भी स्पष्ट है कि सफलता रूपी सुमन की छटा बड़ी निराली होती है। आज इस प्रेरक व सारतत्वपूर्ण शब्दसमूह- "प्रतिकूल परिस्थिति में ही प्रतिभा के प्रसून खिलते हैंं।" से मुझे द्वापरशिरोमणि श्रीकृष्णचंद्र जी का अवतरण प्रसंग स्मरण हो रहा है। चूँकि उनका आज अवतरण दिवस है; अतः उनके सम्बंध में कुछ बातों का जिक्र करना प्रासंगिक है।
"प्रतिकूल परिस्थिति में प्रतिभा के प्रसून खिलते हैं।" श्रीकृष्ण जी के जीवनवृत्त पर यह शब्दावली सटीक बैठती है। उनके अवतरण प्रसंग में कुछ इस तरह की प्रतिकूल परिस्थितियाँ निर्मित होती है। पावस ऋतु और बारिश का मौसम। भाद्रपद के कृष्ण पक्ष।
अष्टमी तिथि के मध्य काली रात। कारागार जैसी जगह। है न... प्रतिकूल परिस्थिति ? ऐसे ही समय बालक कृष्ण का जन्म होता है; और जिसे लेकर बंदी पिता वसुदेव जी मूसलाधार बारिश के वक्त रातोंरात उफनती कालिंदी (यमुना) को बमुश्किल पार कर गोकुल की धरा पर पदार्पण करते हैंं। क्या यह नहीं है प्रतिकूल परिस्थिति व कुसमय...? बंदी माता-पिता देवकी-वसुदेव के जूझते परिस्थिति भरे जीवन का निष्कर्ष है- कृष्ण। इस तरह प्रतिकूल परिस्थिति में ही देवकी-वसुदेव को बालक कृष्ण के रूप पुत्र की प्राप्ति हुई।
अब हम कृष्ण की शैशवावस्था की बात करें तो, वह और भी विस्मय भरा रहा है। उसकी जन्मावधि ही अनुकूल व अच्छी नहीं रही, तो फिर शैशवकाल भला कैसे सामान्य हो सकता है। उसकी शैशवावस्था बहुत ही चमत्कारिक रही है। भले माता-पिता व दूसरों को कृष्ण एक चमत्कारिक बालक लगता है; और ईश्वर के प्रति श्रद्धा रखने वालों ने उसे ईश्वर माना।
पर जनसाधारण की दृष्टिकोण में कृष्ण एक शिशु था; बालक था। तृणावर्त, वत्कासूर, बकासुर, अघासुर, यमलार्जुन जैसे दानवों का वध कर उसने सामाजिक कुरुतियों का अंत किया। पुतना वध में कृष्ण का एक सामाजिक संदेश रहा कि संसार में एक नारी को अपने हृदय में हर बच्चे के प्रति ममता व स्नेह का भाव रखना चाहिए; छल-कपट की जगह एक नारी-हृदय नहीं है। कोई औरत एक अबोध बच्चे की मृत्यु का कारण न बने। बालस्नेहरहित हृदय निश्चय ही दंड का भागीदार है। इसलिए तत्कालीन समाज में बालकृष्ण द्वारा पुतनावध के रूप में ऐसी सामाजिक व अनैतिक कुरुतियों का अंत आवश्यक था।
कृष्ण का बाल्यावस्था में पदार्पण समूचे संसार के लिए एक संदेशपरक आम बचपन का प्रतीक रहा। गोकुल के घरों से सखाओं के साथ कृष्ण का माखन चुराना सुदृढ़ बालमित्रता का धोतक है। उसने बताया कि मित्रता सबसे समीपस्थ सांसारिक नाता है जिसमें छल, ईर्ष्या-द्वेष, घमंड, बैर जैसे अमानवीय दुर्गुणों का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। यमुना तट पर सखाओं के साथ कृष्ण के कंदूक-क्रीडा में स्नेह, एकता, सहयोग, भ्रातृत्व जैसे मानवीय सद्गुण देखने को मिलता है।
फिर खोई हुई कंदूक के लिए उसका यमुना में कूद कर नागराज कालिया को यमुना से निष्कासित करना समस्त जलस्रोत को प्रदूषण से बचाना है। बालक कृष्ण का वृंदावन में गो-चारण उसके पशुधनप्रेम का प्रतीक है। उसके अनुसार गोधन से सुख-समृद्धि बढ़ती है। वन-वन गाय चराते हुए कृष्ण के द्वारा कई दानवों का वध करना उसके वनसंरक्षण को अवगत कराता है।
इस तरह बालकृष्ण इस जगत में वनपरम्परा, अरण्यसभ्यता व कानन संस्कृति के संवाहक के रूप में स्थापित हुआ। दूध-दही बेचकर घर लौटती ग्वालिनों के द्वारा नदी-ताल में निर्वस्त्र स्नान करना एक अनैतिक कृत्य माना। फिर उसने ग्वालिनों को जो सबक सिखाया; सारा संसार जानता है। बालकृष्ण के द्वारा अपने सिर पर मोरपंख व गले में तुलसीमाला धारण करना प्रकृतिप्रेम का सूचक है। अतएव बालक कृष्ण का संदेश रहा है कि आने वाली पीढ़ी सदैव प्रकृति से प्रेम करती रहे।
कृष्णावतार कथा-प्रसंग में प्रेम का बड़ा महत्व है। उसने मानव जीवन में प्रेम को पूरी प्राथमिकता दी। हर आयु के गोप-ग्वालिनों के द्वारा कृष्ण के प्रति प्रेम बड़ा अनूठा; निराला है। कृष्ण अपने बालपन से ही सबका प्रेमपात्र रहा। उसके प्रति हर वर्ग, आयु, समाज के लोगों का प्रेम उसकी युवावस्था के आकर्षण के कारण नहीं रहा; अपितु उसका सद्चरित्र ही सबका स्नेहभाजन बनने का जरिया बना। बालकृष्ण व धरती के कण-कण के मध्य एक अप्रतिम स्नेह रहा। उसने माना कि प्रकृति में सदैव देने की प्रवृति होती है। प्रकृति के कण-कण की ससम्मान सदैव उचित उपयोगिता ही प्रकृतिप्रेम व पूजा है। इसीलिए तो आवश्यकता पड़ने पर उसने गोकुलवासियों से गोवर्धनगिरि की पूजा करवाई; जिससे देवराज इन्द्र के अहंकार का ध्वंस हो सका। इस तरह बालक कृष्ण व्यक्ति व सामंतवाद का घोर विरोधी कहलाया।
बालक कृष्ण के द्वारा मथुरेश महाराज कंस के वध के रूप में पाप, अधर्म, अन्याय, भ्रष्टाचार जैसी सामाजिक कुरुतियों का अंत हुआ। महाराज उग्रसेन को मथुरा साम्राज्य की सुपुर्दगी कृष्ण की सहृदयता व उदारता का प्रमाण है। देवी देवकी व वसुदेव को बंदीगृह से मुक्त कराना कृष्ण की माता-पिता के प्रति अपार स्नेह व सम्मान है। इस तरह बालकृष्ण एक साधारण होकर भी असाधारण बालक हुआ। उसके असाधारण बाल्यावस्था ने ही समाज में उसे एक असाधारण नर के रूप में स्थापित किया; और फिर वह नर से नारायण कहलाया। है न...कृष्ण प्रतिकूल परिस्थिति में जन्मा बालक ; जिसमें विलक्षणता कूट-कूट कर भरी हुई थी।
@ टीकेश्वर सिन्हा "गब्दीवाला"
व्याख्याता (अंग्रेजी)
घोटिया-बालोद (छत्तीसगढ़)
मोबाईल - 9753269282.