तिरंगा आजादी की लड़ाई के प्रतीक

                 पिंगली ने 19 साल की उम्र में ब्रिटिश इंडियन आर्मी में बतौर सिपाही दक्षिण अफ्रीका में काम किया था। यहीं वे गांधीजी के विचारों से प्रभावित हुए ब्रिटिश फौज छोड़ी और आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए। यहीं उन्हें देश के लिए ध्वज बनाने का आइडिया आया। साउथ बोअर युद्ध के दौरान पिंगली ने देखा कि झंडे की शपथ लेकर सैनिक हर कुर्बानी के लिए तैयार हो जाता है। उनके मन में आया कि वे ऐसा झंडा बनाएंगे, जो पूरे देश में मान्य होगा।

              पिंगली ने 1916 से 1921 तक 30 देशों के राष्ट्रीय ध्वज की स्टडी की और 25 से ज्यादा सैंपल तैयार किए। आखिर में गांधीजी ने बेजवाड़ा में कांग्रेस की सभा में वेंकैया को फाइनल डिजाइन दिखाने के लिए कहा। उन्होंने 3 घंटे में खादी पर डिजाइन तैयार कर दे दिया। फाइनल डिजाइन में लाल और हरे रंग की पट्टी थी। इसके बीचों-बीच चरखा था। महात्मा गांधी के सुझाव पर ध्वज में शांति के प्रतीक सफेद रंग को शामिल किया गया। 1919 से 1921 तक वेंकैया लगातार कांग्रेस के अधिवेशनों में भारत के राष्ट्रीय ध्वज का विचार रखते रहे। 1931 तक उनके बनाए झंडे को कांग्रेस की सभी बैठकों में लगाया जाता रहा।

               जब 22 जुलाई 1947 के दिन संविधान सभा ने तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के तौर पर स्वीकार किया तो गांधीजी कुछ निराश थे। ये भी सोचने पर मजबूर कर दिया कि कांग्रेस के नेता अब उनसे अलग सोचने लगे हैं।  जब आजादी से पहले राष्ट्रीय ध्वज को अंतिम तौर पर मुहर लगानी थी, तब गांधीजी ये चाहते थे कि इसकी सफेद पट्टी में चरखे को ही रखा जाए लेकिन बहुत से लोगों को इस पर आपत्ति थी, जिसमें कांग्रेसी भी शामिल थे।    

            गांधीजी का मानना था कि जो तिरंगा आजादी की लड़ाई में 30 साल से प्रतीक बना हुआ है, उसे ही देश को स्वीकार करना चाहिए। ये झंडा आजादी की लड़ाई के दौरान हर मीटिंग, प्रदर्शन और जुलूस में हमारी लड़ाई का प्रतीक बनता था। फिर गांधीजी ने इसे पहली बार खुद चुना था। कांग्रेसियों को ही तिरंगे में गांधी की इस पसंद से आपत्ति थी। जब आजादी मिलने लगी तो कांग्रेस और कई अन्य दलों ने इस तिरंगे में चरखे को बीच में रखे जाने पर आपत्ति दर्ज करा दी। कुछ ने तो यहां तक कहा कि गांधीजी के खिलौने को भारत के राष्ट्रीय झंडे में रखे जाने का क्या औचित्य है। झंडे के केंद्रीय स्थान पर शौर्य का प्रतीक कोई चिन्ह लगाया जाना चाहिए।

                 ऐसे में कांग्रेस के ही नेताओं ने तिरंगे के बीच में अशोक के चक्र को लाने का फैसला किया, जो अशोक और उसकी सेना के विजय का प्रतीक था। गांधीजी को जब अनुयायियों के इस फैसले का पता लगा तो वो मन ही मन खिन्न और उदास हुए। तिरंगे के बीच के नीले रंग के चक्र अशोक का धर्म चक्र भी कहा जाता है। ये धर्म चक्र सम्राट अशोक के भारत की विशाल सीमाओं का प्रतीक है। उस वक्त पूरा भारत एक शासन व्यवस्था के सूत्र में बंधा हुआ था। सम्राट अशोक के साम्राज्य में पूरा पाकिस्तान और आज का बांग्लादेश भी मौजूद था। बाद में इसके नीले रंग को डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने पिछड़ों और दलितों की अस्मिता का प्रतीक बनाया। दुख की बात है कि भारत के राष्ट्रीय ध्वज को डिजाइन करने वाले पिंगली वेंकैया को देश ने भुला दिया।

                    मोहम्मद अली जिन्ना नए पाकिस्तान को संभालने के लिए कराची पहुंच चुके थे। तब गांधीजी लाहौर में थे। गांधीजी को जब मालूम हुआ कि तिरंगे से चरखे को हटाकर उसी जगह अशोक चक्र लाया जाएगा तो वो बहुत क्षुब्ध हुए। लाहौर में आठ अगस्त को गांधीजी ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं के सामने नाराजगी का इजहार किया। उन्होंने कहा, "मैं भारत के ध्वज में चरखा हटाए जाने को स्वीकार नहीं करूंगा। अगर ऐसा हुआ तो मैं झंडे को सलामी देने से मना कर दूंगा। आप सभी को मालूम है कि भारत के राष्ट्रीय ध्वज के बारे में सबसे पहले मैंने सोचा और मैं बगैर चरखा वाले राष्ट्रीय झंडे को स्वीकार नहीं कर सकता।" ये बात गांधीवादी स्कॉलर और रिसर्चर एल एस रंगराजन ने कुछ साल पहले अपने एक लेख में उद्धृत की थी। दरअसल 22 जुलाई को संविधान सभा ने राष्ट्रीय ध्वज के रूप में चक्र को चरखे के स्थान पर रखे जाने पर मुहर लगा दी थी।

            गांधीजी क्षुब्ध मन से आठ अगस्त को ही लाहौर से पटना के लिए रवाना हो गए। हालांकि उन्होंने लाहौर में ये भी कहा कि जिन्ना भारत के नागरिक हैं और पाकिस्तान की सेवा के लिए पाकिस्तान गए हैं। जब आजाद भारत के राष्ट्रीय ध्वज की बात 1947 में संविधान सभा के सामने आई तो गैर कांग्रेसी सदस्यों ने तिरंगे में चरखे पर एतराज जाहिर किया, उनका कहना था कि ये चरखा वाले तिरंगा तो एक राजनीतिक पार्टी कांग्रेस का झंडा है, उसे किसी राष्ट्र के लिए कैसे स्वीकार किया जा सकता है।

              डॉ बीआर अंबेडकर संसद की संविधान मसौदा समिति के चेयरमैन थे। तब झंडे पर एक समझौता हुआ। अंबेडकर के ग्रुप ने कहा, कांग्रेस का तिरंगा को बरकरार रखा जाए लेकिन चरखे की जगह ध्वज के आठ तीलियों वाले बौद्ध चक्र को लाया जाए। बाद में इस पर सहमति बन गई कि इस चक्र को 24 तीलियों का रखना चाहिए, जो सारनाथ में सम्राट अशोक के स्तंभ पर है। संविधान सभा ने 22 जुलाई 1947 पर इस प्रस्ताव पास कर दिया।

               गांधी जी ने लिखा, चरखा केवल सूत कातने वाला उपकरण ही नहीं है, जो गरीबों के रोजगार और आमदनी मुहैया कराएगा लेकिन इसका मतलब कहीं अधिक है, ये सादगी, मानवीयता और किसी को कष्ट नहीं देने के साथ गरीबों और अमीरों, पूंजी और मजदूरी के बीच एक अटूट बंधन का भी प्रतीक बने। कुल मिलाकर चरखा अहिंसा का सिंबल बने। फिर चक्र को लेकर गांधीजी का मन बदला। हालांकि उन्होंने ये तो महसूस किया कि ध्वज के मामले पर उन्हें अनदेखा किया गया है। उन्होंने 03 अगस्त 1947 को हरिजन बंधु में द नेशनल फ्लैग नाम से दार्शनिक अंदाज में लेख लिखा। जिसमें उनकी नाराजगी के कोई संकेत नहीं थे, राष्ट्रीय ध्वज के तीन रंगों का मतलब कोई भी कुछ लगा सकता है लेकिन जो भी अनेकता में एकता का मतलब समझता है वो इन तीन रंगों के बारे में बेहतर तरीके से समझ सकता है।

        

डॉ0 नन्दकिशोर साह

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