हृदय के शूल

अनिल निपीड़ित मैं गिरी,

अंतहीन इक कूल पर।

मधु स्मृति तरंगों में,

दिखे हृदय के शूल पर।


यादों की मरकत प्याली,

सस्मित हुई मैं मतवाली।

लोल उर्मि के तालों पर,

थिरक कपोलों पर लाली।


आह!मृदु दिन वे सुहाने,

तृषित हिय आता तुषार नहलाने।

ओस बूँद मिश्रित मकरंद,

श्रांत मन में सौरभ फैलाने।


विधु रश्मि का वितान,

तारों के आँचल में शाम।

तम का स्नेहिल आलिंगन,

कौमुदी के अंक में आराम।


उन्मुक्त थी मेरी उड़ान,

चिड़ियों सी अम्लान।

मेरी मृदु गात में तुम,

मैं तुम में अंतर्ध्यान।


अवदात मलय बयार वो प्यारा,

जाने क्यों फिर हुआ किनारा?

मंजु मुख क्यों आभाहीन हुई?

पृथक होकर भी तुझमें विलीन हुई।


ज्यों प्रकाश मिटकर देता

तम को नया आकार,

तुझमें अन्तर्हित होना ही करता,

मेरे जीवन को साकार।


आज समीर यान पर देखा

मधु श्री का बादल,

क्षणिक विस्मित मैं हुई,

गिरे जब स्मृतियों के काजल।


डॉ. रीमा सिन्हा (लखनऊ)