खेल, खेला और खिलाड़ी

-         'इतने सारे स्वर्ण पदक!'

-         ‘हाँ यह सब तुम्हारी मेहनत के हैं। बताओ इन्हें पाकर तुम्हें कैसा लग रहा है?’

-         'इन्हीं पदकों की तलाश में जीवन खपा दिया और एक वो हैं जो बिना कुछ किए मलाई उड़ा रहे थे। पहली बार लगा कि यह खेल हम खेल रहे थे।’

-         ‘मतलब...? मैं कुछ समझा नहीं। साफ-साफ कहो।’

-         ‘तुमसे क्या छिपा है। तुम तो सब जानते ही हो। एक समय था जब यह खेल भ्रष्टाचारियों के लिए हुआ करता था। कोई आयोजन करके स्वर्ण पदक झटकने के चक्कर में था तो कोई खेल सामग्री में धांधली करके। कोई खिलाड़ियों के ठहरने के खर्चों में तो कोई उनके भोजन के ठेके ले-लेके पदकों की झड़ी लगाने के चक्कर में रहता था। वो क्या है न कि जब-जब भ्रष्टाचारी ऊँचे पद हथिया लेते हैं और खिलाड़ी सड़ते रहते हैं तब-तब पदक नहीं घोटाले के पटल खुलते रहते हैं। आज पहली बार लगा कि यह खेल भ्रष्टाचारियों के लिए नहीं खिलाड़ियों के लिए था।’

-         ‘सो तो है। लेकिन तुम जिस घटना के बारे में बता रहे हो वह तो कॉमनवेल्थ का ‘महाखेल’ था। भ्रष्टाचारी कहाँ नहीं होते। जैसे हवा है, वैसे वे हैं। तुम्हें तो अपने खेल धर्म का पालन करना चाहिए। इन सबसे तुम्हारा क्या लेना-देना?’

-          ‘अरे! यह भी खूब कही। लेना-देना कैसे न होगा। हम लोग खेल जमीन पर खेलते हैं। आसमान पर नहीं। मछली तो जीती पानी में ही है न! पानी के बिना उसका कैसा अस्तित्व?’

-          ‘खिलाड़ियों का काम खेलना होता है। इन सब धांधलियों के बारे में सोचना नहीं। ऐसा भी तो हो सकता है कि नाच न जाने आंगन टेढ़ा की बिसात पर अपने खराब खेल का ठीकरा धांधली के मत्थे फोड़कर खुद को पाक साबित करना चाहते हो। क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता?’

-          ‘खिलाड़ियों के लिए खेल ही उसका धर्म होता है। वह तो हर बार देश का नाम ऊँचा करने के लिए अपना सौ फीसदी देने का प्रयास करता है। लेकिन कुछ धांधलीबाज होते हैं जो बिना स्टेडियम बनाए, बिना खेल सामग्री दिए, बिना सुविधाओं के हमें हवा में तीर मारने की बात करते हैं। कागज पर सबका हिसाब होता है, जमीन पर आते-आते सब कुछ शून्य। फिर उसके बाद खेल की जो फजीहत होती है उसका ठीकरा हमारे मत्थे फोड़ दिया जाता है।’

-          ‘मैं तो सब जानता हूँ। फिर भी यूँ ही जानना चाहता था कि खेल और खिलाड़ी के बारे में तुम्हारे विचार क्या हैं?’

-          ‘अब तुम्हें क्या लगता है?’

-          ‘लगता नहीं, पूर्ण विश्वास हो गया है कि खिलाड़ी धांधली से ऊपर उठकर देश के लिए मर मिटता है। ऐसे में देश ईमानदारी से उनका साथ दे तो दलदल में भी कमल खिला सकता है। क्योंकि खेल से खिलाड़ी है और खिलाड़ी से खेल। इन सबके बीच धांधली का कोई स्थान नहीं है।’

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657