सामने आ रहा ज्ञानवापी का सच

नाम से सिद्ध होता है कि ज्ञानवापी हिन्दु धर्म का पर्याय है। इसके बावजूद शिव मंदिर का विध्वंस करने वाले शायद इस बॉत को भूल गए थे कि मुस्लिम समाज की दुनिया में किसी भी पूजनीय या इबादत करने वाले स्थान का नाम इस तरह से नही होता। क्या किसी के पास उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के इस सवाल का कोई जवाब है कि आखिर ज्ञानवापी परिसर में त्रिशूल क्या कर रहा है? उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यह जो कहा कि ज्ञानवापी मामले में मुस्लिम पक्ष को स्वयं आगे आकर इतिहास में हुई गलती को सुधारने का प्रस्ताव देना चाहिए, वह इस विवाद के समाधान का सही उपाय है। 

उनकी बात पर मुस्लिम पक्ष को नीर-क्षीर ढंग से विचार करना चाहिए। उसे वैसा रवैया अपनाने से बचना चाहिए, जैसा उसने अयोध्या मामले में अपनाया था। उसने अयोध्या मामले में हठधर्मिता दिखाकर कुछ हासिल नहीं किया। उलटे शांति और सद्भाव से इस विवाद के हल का अवसर गंवा दिया। कतिपय लोगों के कारण ऐसा कई बार हो चुका है। यह शुभ संकेत नहीं कि उनके इस प्रश्न का उत्तर देने के स्थान पर मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के नेता मूल विषय से ध्यान भटकाने वाले बयान देने में जुट गए हैं। यही काम कुछ अन्य मुस्लिम नेता भी करने में लगे हुए हैं। 

इससे बात बनने वाली नहीं है। मुस्लिम समाज को खुद उन नेताओं से सावधान रहना होगा, जो अपने स्वार्थ के लिए उन्हें बहकाने में लगे हुए हैं। ज्ञानवापी परिसर में यह साफ देखा जा सकता है कि यहां मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई। इसके तमाम ऐतिहासिक दस्तावेज भी हैं जो देश के ही नहीं विदेश के लोगों ने भी लिखे। इनमें कुछ ऐसे दस्तावेज भी हैं जो औरंगजेब के करीबियों ने लिखे और जिनमें यह कहा गया है कि इस मुगल शासक ने काशी विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त करने का फरमान जारी करने का काम किया था। इसकी कहानी अब तहखाना खुलने के बाद सामने आने लगा है।  

ज्ञानवापी परिसर के भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण की ओर से वैज्ञानिक परीक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने जो निर्णय दिया, वह सत्य को सामने लाने में सहायक साबित होने वाला है। इस निर्णय के बाद मुस्लिम पक्ष को यह आभास हो जाए तो अच्छा कि वह बेवजह अदालतों का दरवाजा खटखटाकर सच्चाई से मुंह मोड़ने की कोशिश ही कर रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह जो सवाल किया कि आखिर सर्वेक्षण के जरिये सच को सामने लाने में क्या परेशानी है, उस पर मुस्लिम पक्ष को नीर-क्षीर ढंग से आत्मचिंतन करना चाहिए।

 उसे यह पता होना चाहिए कि उसने अयोध्या मामले में इसी तरह सच से मुंह मोड़ने की जो कोशिश की थी, उसके क्या परिणाम सामने आए। ज्ञानवापी परिसर के मामले में तो खुली आंखों से यह देखा-समझा जा सकता है कि यहां पर मंदिर तोड़कर मस्जिद का निर्माण किया गया। इसके तमाम ऐतिहासिक दस्तावेज भी उपलब्ध हैं, जो देश के ही नहीं, विदेश के लोगों ने भी लिखे। इनमें कुछ ऐसे दस्तावेज भी हैं जो औरंगजेब के करीबियों ने लिखे और जिनमें यह कहा गया है कि इस मुगल शासक ने काशी विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त करने का फरमान जारी करने का काम किया था। 

अब जब सुप्रीम कोर्ट ने ज्ञानवापी परिसर से वैज्ञानिक साक्ष्य जुटाने के संदर्भ में अपना रुख साफ कर दिया है तब मुस्लिम पक्ष को उस तरह की गलती करने से बचना चाहिए जैसी गलती उसने अयोध्या मामले में की। उचित तो यह होगा कि इस विवाद का समाधान उसी तरह से करने की कोशिश की जाए जैसा कि कुछ दिनों पहले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि इतिहास की भूलों को सुधारने का काम आवश्यक है और इसके लिए स्वयं मुस्लिम समुदाय को आगे आना चाहिए। 

कुछ मुस्लिम नेता भी इसी मत के हैं, लेकिन उन्हें बरगलाने की कोशिश करने वाले लोग और राजनीतिक दल सद्भाव से ऐसे मामलों का समाधान नहीं होने देना चाहते। आजादी के बाद से मुस्लिम तुष्टीकरण वाली वोट बैंक की राजनीति ने इस तरह के मामलों को सुलह और सहमति से हल करने में रोड़े ही अटकाए हैं। इसके लिए अप्रत्यक्ष रूप से राजनैतिक दल भी कही न कही अपनी सहभागिता ऐसी स्थिति में दर्ज कराती है जबकि सच्चाई सामने आ चुकी है। 

इस मुद्दे पर भी राजनैतिक दलों को वोट बैंक की राजनीति करने से परहेज नही लगता। बहरहाल ज्ञानवापी के पुरातात्विक सर्वेक्षण से वैसे ही साक्ष्य सामने आ सकते हैं, जैसे अयोध्या में सामने आए थे। ज्ञानवापी का सच सामने लाने की कोशिश गड़े मुर्दे उखाड़ने वाली बात नहीं, बल्कि इतिहास की भूल को देर से ही सही, सुधारने की एक पहल है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला इस बात को रेखांकित करता है कि धर्मस्थल कानून ज्ञानवापी जैसे मामलों में सच उजागर करने में बाधक नहीं है। 

इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि ज्ञानवापी जैसा मामला अकेला नहीं है। इन मामलों के संदर्भ में सच से मुंह मोड़ने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है, क्योंकि यह एक तथ्य है कि विदेशी आक्रांताओं ने भारत में बड़े पैमाने पर मंदिर का ध्वंस किया। ऐसे स्थल जो ये साफ तौर पर इंगित करते हैं कि मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई, वे हिंदू समाज के आत्मा को कचोटते हैं। 

वैसे भी पूर्व में कई मुस्लिम नेताओं का मत था कि अयोध्या में बाबरी नामक मस्जिद के होने का कोई औचित्य नहीं बनता, लेकिन संकीर्ण राजनीतिक कारणों से उनकी नहीं सुनी गई। यह भी किसी से छिपा नहीं कि तब मुस्लिम पक्ष को अनेक दलों ने भड़काने का भी काम किया। अच्छा हो कि मुस्लिम पक्ष इस बार अयोध्या वाली गलती दोहराने से बचे और सच्चाई को स्वीकार करे। इससे वह समाज में सद्भावना का वातावरण बनाने में सहायक होगा।

यह खेद की बात है कि वह ज्ञानवापी मामले में सच को भी सामने नहीं आने देना चाहता। क्या यह विचित्र नहीं कि उसे ज्ञानवापी परिसर का पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की ओर से परीक्षण करने पर भी आपत्ति है? आखिर सच को सामने आने से रोकने की कोशिश का क्या मतलब ? मुस्लिम पक्ष की यह कोशिश तो यही बताती है कि उसे यह सत्य उजागर होने का भय है कि वाराणसी में मंदिर की जगह वैसे ही मस्जिद बनाई गई, जैसे अयोध्या में बनाई गई थी। 

किसी के लिए भी समझना कठिन है कि मुस्लिम पक्ष इसके समर्थन में क्यों नहीं कि ज्ञानवापी परिसर का सर्वे पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग करे ? इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इस मामले में अपना निर्णय सुरक्षित कर लिया है, लेकिन समय की मांग है कि निर्णय जल्द सामने आए। वाराणसी में जिसे ज्ञानवापी मस्जिद कहा जा रहा है, वह मंदिर को ध्वस्त कर बनाई गई, इसके प्रमाण खुली आंखों से दिखते हैं। 

कोई भी काशी विश्वनाथ मंदिर से सटी मस्जिद को देखकर इसी निष्कर्ष पर पहुंचेगा कि उसे मंदिर की जगह जबरन बनाया गया। इस परिसर की दीवार पर बनी आकृतियां और वहां स्थित नंदी की प्रतिमा यही बताती है कि जिसे मस्जिद कहा जा रहा है, वह मंदिर है। सर्वे के तीसरे दिन मूर्तियों और खम्बों का जो स्वरूप सामने आया उसकी वैज्ञानिक पद्धति से जॉच के बाद यह साबित हो जाएगा कि इस धार्मिक स्थल स्वरूप बदला गया है।