सुनों..
ये जो इश्क है न
ख्वाबों से ,
है ही नहीं इसमें
कुछ करने जैसा,
बस , हो ही जाता है
कहीं भी ..कभी भी.. !!
ये ख्वाब..
उडते परिंदे से ,
माना , वश में नहीं
पर, कैद कर लेते हैं
मन को ,
कहीं भी..कभी भी..!!
ये वक्त-बेवक्त
आवारगी ख्वाबों की ,
सहसा ,
खुशबू सी बिखर जाती है ,
औऱ, सिमट आता है यथार्थ
कल्पनाओं में ,
कहीं भी..कभी भी..!!
औऱ क्या कहूं
इन ख्यालों की आवारगी को ,
कि देर तक महसूस करती हूं
"छुअन" इनकी ,
जब तेरे "ख्याल"
छूकर गुजर जाते हैं
मेरे ख्यालों को ,
बहुत अच्छा लगता है
कहीं भी ..कभी भी..!!
नमिता गुप्ता "मनसी"
मेरठ, उत्तर प्रदेश