सोच रही इक अखबार निकलवाऊँ,
खुद प्रधान सम्पादक बन जाऊँ।
अजब सा तेवर फिर मैं दिखलाऊँ,
साहित्यकारों पर खूब रौब जमाऊं।
यह रचना जँची नहीं,लगती कुछ भली नहीं,
अभी तो तुरंत तुम्हारी छप चुकी है,
औरों की तो पेंडिंग पड़ी है,
देखो सब बारी बारी से आओ
ऑपरेटर पर न दवाब बनाओ,
इधर -उधर कैसे भी छापे
कविता को कोई क्या ही आंके?
अपनी न्यूज़ जो तुमने भेजी है
उसमें लगाओ एक ही फोटो।
जो हैं मेरे खास उनकी बकवास
की भी मैं लगाऊंगी पचास फोटो।
आड़े-तिरछे मुझसे प्रश्न न पूछो
जो मिला उसमें खुश रहना सीखो।
आकर्षण भी कुछ चीज होती है,
फलां कवि की कैसी भी रचना
मुझको बहुत जंचती है।
उनकी लगवाऊंगी मैं जगह बनाकर खास,
तुम आखिरी पन्ने के कोने की बस रखना आस।
मत भूलो मैं लेती नहीं पैसे,
सोचो,न देखूँ मैं मैसेज तुम सबके।
अक्ल ठिकाने फिर आ जायेगा,
सम्पादक से उलझना तब समझ आयेगा।
सुनो! कुछ अच्छे आलेख लिखो
कविता ग़ज़ल से अच्छे सुलेख लिखो,
तंग आ गयी तुकबंदी छाप-छापकर,
तुम-सबके हाइकु, दोहों को माप-मापकर,
बात सुनो,तुम कवियों को कैसे समझाऊं?
ऐसी बोली बोल-बोलकर मैं इठलाऊँ,
सोच रही इक अख़बार निकलवाऊँ...
डॉ. रीमा सिन्हा (लखनऊ )