बचा लो, प्रेम का यूं घटते जाना..

घट रही हैं कविताएं

रोज़ थोड़ा-थोड़ा ,

घट रहा है उनका अनवरत स्वत: प्रवाह

कि जरूरत से ज्यादा ऊंचे हो चले हैं

रास्तों के ढलान ,

रास्ता बनाएं भी तो कैसे !!

बहुत पूछतीं हैं आजकल

अपने तार्किक प्रश्न

जिनका ज़रूरी था पूछा जाना 

किसी एक समय में ,

नहीं सुनती किसी की

न जानें कैसी जिद् है ये..

क्रांति का बिगुल बजाए 

घूमतीं हैं सारा दिन

सड़कों पर नंगे पैर ही ,

वो नहीं करती अपनी फ़िक्र ज़रा भी

किसी बेफिकरे की तरह !!

सुनों..

घट रही हैं संभावनाएं लगातार ,

बचा लो..एक भी कविता को घटे जाने से !!

बचा लो..प्रेम का भी यूं घटते जाना !!

नमिता गुप्ता "मनसी"

मेरठ, उत्तर प्रदेश