बादल

बादल मानों गरज गरजकर,

अपनी व्यथा सुनाते हैं।

सूरज से तपती धरती पर

अपना स्नेह लुटाते हैं।

चले मिलन ज्यों चिर संगिनि को,

भरकर भावों की गागर,

प्रथम वृष्टि की मृदु सुगन्ध से

मनहुँ चले मदमाते हैं।

व्यग्र धरा भी शीतलता हित

बाट जोहती है नभ की,

वर्षा की डोरी में बिंधकर 

मेघ धरा पर आते हैं।

सघन प्रतीक्षा के दिन बीते,

बीत गयीं बोझिल रातें,

मुस्कानों का सागर लेकर,

मेघ चले मदमाते हैं।

अवनि-व्यथा भी दूर हो गयी,

देखा जब घिरते बादल

धरा-गगन ये युगल देख

एक दूजे को मुस्काते हैं।

काली बदरी देख हो रही 

प्रकृति-सुन्दरी मतवाली,

जल की बूंदों में प्रियवर को

देख नयन हरषाते हैं।

धरा और अम्बर का मधुरिम

मिलन क्षितिज पर होता है,

नीले मेघ घटा में लेकर 

प्रेम संदेशा लाते हैं।

मानव पशु पक्षी तरु पल्लव

साक्षी बने महोत्सव के,

धाराधर का शौर्य देखकर

प्रणय गीत सब गाते हैं।

सूरज से तपती धरती पर 

अपना नेह लुटाते हैं।

डॉ0 श्वेता सिंह गौर, हरदोई