जब बिटिया थी मैं
तेरी लाड़ली
तेरी दुलारी
फिर क्यों छीन
बस्ता, किताबें, स्कूल मेरा
डाल दी पैरों में बेड़ी विवाह की
पढ़ने , खेलने की उम्र में
झोंक दिया घर गृहस्थी और ससुराल के बोझ तले
क्यों माँ क्यों बाबा
यूँ छीन लिया मुझ से मासूम बचपन मेरा
खुद ही अभी बच्ची हूँ तो कैसे झेलूँ दर्द संबधो का
क्यों न सोचा माँ बाबा तुमने
यूँ जकड़ने से पहले मुझे
अनचाही बिन माँगी बेड़ियों में
बस क्या इतना था कसूर मेरा
थी लड़की मैं
न कुछ कह सकी न कर सकी
बस सिमटी सकुचाई सहमी सी हो गई विदा तेरे आँगन से
बंधी लाल जोड़े, मेहंदी, आलते , पाजेब की अनचाही बेड़ी में
छोड़ पीछे अपने मासूम सपने
पढ़ने, लिखने, बढ़ने ,बनने के
अब तो काटना होगा सारा जीवन बंध कर यूँ ही मुझे
फूंकते चौका चूल्हा, झेलते वार मानसिक , शारीरिक
जब माँ बाबा आप ने ही न सोची, समझी पीर मेरी तो और कोई क्या समझेगा
बस जो हाथ खेलते थे खेल खिलौनों से
अब बन गये खुद खेल और खिलौना।।
.......मीनाक्षी सुकुमारन
नोएडा