नारी

क्यों कहतें हैं देवी उन्हे

पूजन का स्वांग रचाते हो

घर आंगन के हर काम में

शोषित ही उसे पाते हो

बचपन में होती लड़की

लड़कों से कमतर थी

हुई बड़ी तो घर आंगन में

धुरी सी खड़ी हुई थी

चाहा जो स्वाभिमान को

उसे वो कभी मिला नहीं

हर मोड़ पर खड़ी वो आगे

फिर भी उसे गिला नहीं

अपमानित करतें उसे मान

सदा नारी तन अशक्त

किंतु वह तन मन से वारी हैं 

तभी तो सब पुकारे ये सन्नारी हैं 

सब पर पति हो या संतान

सुख का साधन माने हैं सब

इसको नहीं सम्मान दिया

सुंदर तन हो या नहीं हो

शैया सुख का साधन समझा

छीना झपटा सदा ही उससे

तन मन को नोचा उसके

क्यों कहा किंतु समझा नहीं

’नारी तू नारायणी’हैं 

जन्म देने वाली नारी क्यों

बाजार की शोभा बनी

देख नारी नर के मन में व्यभिचार बढ़े

क्यों नहीं श्रद्धा के साथ अभिवादन करें

दिखावे की सद्भावना शब्दों

का छलावा हैं

नर ने नारी को सदा ही कमतर माना हैं

कुंठित मन में आदर नहीं हैं

जरूरत सदा ही माना हैं

हे! नर तुमने उसमें मां बहन को क्यों न पहचाना हैं

तुम शब्दों से खेलकर भावनाओं से मत खेलों

आज ये एक विपदा हैं

नारी के बिन कोई पला नहीं

फिर भी नारी के सामने कोई झुका नहीं

मां के सम्मान को बेटे ने टाला

छोड़ घर वृद्धाश्रम पहुंचाया

ज्ञान पेलते ’मदर्स डे’ पर

बहना की सुध न ली कभी

बचपन का वो साथ भुलाया

कब होगा सुधार समाज में

न्याय मिलेगा मां,बहन और 

सन्नारियों को

बदलेगा अभिगम जग का

अंगोपांग के उपर जब नारी को तोलना

जयश्री बिरमी

अहमदाबाद