नटवर ताऊ के धवलकेशों में तजुर्बा चमक बनकर दमकता है। महामारी के दौर में रामभरोसे अस्पताल ने उनके तजुर्बे के अध्याय को काफी समृद्ध किया है। अपने पड़ोसी मनोहर की पत्नी और उनके दो लड़कों को यमराज की भेंट चढ़ते हुए करीब से देखा है। जीवन में कभी अस्पताल के बारे में बुरा-भला न कहने वाला उनका मुख अस्पताली शब्दावली का रट्टा लगा रहा है।
यदि कोई उनसे रामभरोसे अस्पताल के बारे में पूछ लेता तो वे कहते, रामभरोसे अस्पताल तो वही होवे जहाँ बेड कम और मरीज ज्यादा दिखें। ग्लुकोज की जगह आँसू, इलाज की जगह एक हजार टेस्टिंगों के चोंचले और काउंटर पर नोट गिनने की मशीन खर्र-खर्र करते हुए कानों में गूँजे। तब तुम समझ जाना कि निराशा वाली गली में, कब्रिस्तान के पीछे रामभरोसे अस्पताल पहुँचे गए हो। ऐसे अस्पतालों में डॉक्टर की ताल पर मरीजों की आस नाचती है।
मनोहर काका पुराने जमाने के आदमी होने के चलते उनकी सोच पर पुरानेपन की काई जम गई थी। उनके हिसाब से पुराने होने का मतलब नयों को डाँटने का लायसेंस है। कोई कुछ कह देता तो तुरंत उसकी बात काटने के लिए कैंची लिए कूद पड़ते। उनसे बहस करना मतलब अपना सिर दीवार को दे मारना था। अड़ियल इतने कि नेता सारे फेल हो जाएँ। उन्हें बहुओं ने बार-बार समझाया कि संभलकर रहिए।
आबोंहवा ठीक नही है। लेकिन काका थे कि अपने फ्लो में बहुओं की ऐसी क्लास लगाते कि चारों खाने चित्त। कहते, यह बीमारी-वीमारी कुछ नहीं होती। सब मन का फरेब है। मैंने ऐसी कई बीमारियों को मच्छर की तरह मसल दिया है। न जाने क्यों लोग मुँह पर निपोरा लगाए घूम रहे हैं। इतने डरपोक लोग मैंने आज तक जिंदगी में नहीं देखे। इतना कहते और कंधे पर गमछा डालकर सुपरमैन की तरह बाजार की ओर निकल पड़ते। यही सुपरमैन फल-फूल, दूध, सब्जी और जरूरत की चींजें ले आते।
एक दिन जरूरत की चीज़ों के साथ-साथ छींक और खांसी उपहार साथ में ले आए। दो दिन तक सुपरमैन लगातार खांसते और छींकते रहे। बडी मुश्किल से मनाकर उन्हें रामभरोसे अस्पताल ले गए। वहाँ पता चला कि वे पॉजिटिव हो गए हैं। घरवालों की भी जाँच हुई। पत्नी और दोनों लड़के पॉजिटिव निकले।
अडियल सुपरमैन ने रोती-बिलखती बहुओं को समझाया कि किसी को कुछ नहीं होगा। यह रोना-धोना बंद करो। हिम्मत से रहो। सुपरमैन तो जैसे-तैसे बच गए, लेकिन पत्नी और दोनों लड़के भगवान को प्यारे हो गए। अस्पताल के चक्कर में इतना खर्च हो गया कि उन्हें अपना घर बेचना पड़ा। अब सूपरमैन पहले जैसे अड़ियल नहीं रहे। अब वे पूरी तरह ठंडे पड़ चुके थे।
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657