आलाकमान - जानते भी हैं आपके इस बयान से हमारी कितनी भद्द पिट गई। ऊपर से एक तबका हमसे दूर हो गया है। अगले साल वहाँ हमें चुनाव भी जीतने हैं। ऐसे में आप धर्मविरोधी बयान कैसे दे सकते हैं?
नेता सदस्य – जानता हूँ। मैंने जो भी किया जानबूझकर किया। शराफत से दिल जीते जा सकते हैं। गद्दी नहीं। गद्दी के लिए भद्दी हरकतें करनी पड़ती हैं।
आलाकमान - ये जलेबीदार बातें छोड़ो और होश में आओ। विरोधी तबका तुम्हारे खून का प्यासा हो गया है। जबसे तुम्हें बेल मिली है वे खुले बैल की तरह तुम्हारे पीछे पड़ गए हैं। खुदा न करे कि कुछ ऊँच-नीच हो जाए। राजनीति में कभी हत्या नहीं होती, केवल आत्महत्या होती है। अभी तुमने वही किया है।
नेता सदस्य – लेकिन मुझे इसका कोई पछतावा नहीं है। जो भी किया सोच-समझकर किया।
आलाकमान – पता भी है कि लोग तुम्हें पत्थरों से मारने और फाँसी पर लटकाने की माँग कर रहे हैं। हम तुम्हें पार्टी से बर्खास्त करते हैं।
नेता सदस्य – कोई बात नहीं। मैं एक तबके के लिए खलनायक जरूर हूँ, लेकिन दूसरे तबके का मैं ही सबसे बड़ा नायक हूँ। अब मेरी लोकप्रियता इतनी बढ़ गई है, कि कुछ दिनों बाद आप ही झकमार कर मेरे पास आयेंगे।
आलाकमान – खैर छोड़ो! यह जब होगा तब होगा। एक अंतिम प्रश्न – तुम्हें अपने किये पर तनिक भी पछतावा नहीं? क्या तुम दूसरा रास्ता नहीं अपना सकते थे?
नेता सदस्य - नहीं। क्षमा का अधिकार बड़ों के पास होता है। छोटे तो केवल गलतियाँ करते हैं। मैं छोटा बनकर और नहीं भुगत सकता। मैं खुद बड़ा बनना चाहता हूँ। दया से मिली क्षमा जीवनभर कष्टदायी होती है। मैं इस कष्ट को नहीं सह सकता। मैंने देखा कि कोई आपकी चप्पल ढोकर गद्दी पर विराजमान होने के सपने देख रहा है। दुर्भाग्य से आपके दो ही पैर हैं और दूसरी चप्पल पहनते नहीं। इसीलिए निर्णय कर लिया कि मैं ऐसा कुछ कर जाऊँगा कि आलाकमान खुद ब खुद मेरे पास चलकर आए। मैंने बिना छुए बड़ी चप्पलों को मेरी चौखट तक आने पर मजबूर कर दिया। बड़ी चप्पलें जब छोटी चौखटों पर पड़ती हैं तब छोटों के पैर बड़ी चप्पलों में अपने आप फिट हो जाते हैं।
आलाकमान नेता सदस्य के सामने नतमस्तक था।
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657