कृषक आन्दोलन

कृषक आन्दोलन के उद्देश्य एवं इसके विषय में चर्चा करने से पूर्व हम कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर एक नजर डाल लेते हैं। जिसमें सर्वप्रथम कृषक और कृषक समाज का परिचय जानना अत्यंत महत्वपूर्ण है। कृषक समाज का अर्थ गैर जनजातीय समाज से है। बहुत सारे बुद्धिजीवियों का मत है कि नगरीय या शहरीय क्षेत्र को छोड़कर बाकी का भाग कृषक समाज के रूप में मान्य करा जा सकता है। 

कृषक समाज विश्व के विभिन्न हिस्सों में मौजूद है। कृषक समाज में भी ऐसे कई लोग एवं वर्ग समूह शामिल हैं। जिन्हें कृषक की संज्ञा नहीं दी जा सकती है। जहां पर बहुसंख्यक कृषक हैं वहां पर भी अकृषक लोगों की संख्या कम नहीं है। हमारे देश में समस्त ग्रामीण समुदाय को हम कृषक समुदाय नहीं मान सकते हैं। क्यों कि संरचनात्मक दृष्टि से भिन्न - भिन्न गांवों में कार्यक्षेत्र में विविधता पाई जाती है। हमारे देश में अधिकांश ग्रामीण कृषि से संबंधित कोई न कोई कार्य करते हैं।

 इसमें आवश्यक नहीं की वह सिर्फ खेती ही कर रहे हों। इसलिये इन्हें कृषक या अकृषक में विभाजित करना वो भी तर्कसम्मत तरीके से अत्यंत आवश्यक है। क्योंकि गांव में कुछ ऐसे भू-स्वामी या भूमी के मालिक होते हैं। जो स्वयं कृषि कार्य नहीं करते हैं बल्की श्रमिकों के द्वारा कृषि कार्य करवाते हैं। 

ऐसे भूमिहीन श्रमिक जिनके पास स्वयं की भूमि नहीं होती है। और जो दूसरे की भूमि पर कृषि कार्यो को करते हैं एवं उससे अपनी तथा अपने परिवार की आजीविका चलाते है। ऐसे भूमिहीन श्रमिक सबसे अधिक मेहनती होते हैं। तथा इनकी स्थिति अधिक दयनीय भी होती है। इनका स्तर समाज में निम्न दर्जे का होता है। इसलिये कृषक आन्दोलन को जानने के लिए कृषक तथा कृषक समाज को समझना ज्यादा जरूरी है। 

कृषक आन्दोलन कृषकों के असन्तोष के कारण उत्पन्न होकर कृषकों के क्रोध के रूप में राजस्व हानि, जन हानि, संसाधनों को नुकसान पहुंचाने जैसी स्थितियों को भी अक्सर निर्मित करता रहा है। इसके लिये बहुत सारे कारक और कारण जिम्मेदार रहे हैं। जिन्हें समय रहते सुलझा लेना नितांत आवश्यक रहा है। छोटे आन्दोलन तो कई बार स्वतः ही दम तोड़ देते हैं या दबा दिये जाते हैं।

 अथवा उनकी लगभग अधिकांश मांगे पूरी हो जाती हैं। ऐसे आन्दोलन अक्सर किसी बड़े जन आन्दोलन में तब्दील नहीं हो पाते हैं और कुछ मामूली से धरने प्रदर्शन से ही समाप्त हो जाया करते हैं। लेकिन कृषक आन्दोलन के सन्दर्भ में देखा जाये तो हमारे देश को भिन्न भिन्न समय पर बहुत सारे कृषक आन्दोलनों का सामना करना पड़ा है। स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व हमारे देश के किसानों एवं श्रमिकों में चेतना का विकास होने लगा था।

 हमारे किसान संगठन के महत्व को  समझने लगे थे। सन् 1923 में किसान संगठनों व कृषक श्रम संघ का निर्माण हुआ। हमारे देश में पहला कृषक आन्दोलन 1920 में हुआ। इतिहास गवाह है,  जब - जब भी आन्दोलन हुए हैं देश कई साल पीछे चला गया। अर्थव्यवस्था को काफी नुकसान उठाना पड़ा और वैश्विक स्तर पर देश की साख को धक्का भी लगा। कृषक आन्दोलन कृषि नीति से असहमत होते हुए उसे बदलने के लिये अपनी आवाज उठाता हुआ एक ऐसा संगठन बन गया है। जिसमें छोटे-बड़े समूह शामील हो गये हैं। 

जिनमें कृषकों के साथ अकृषकों का समूह भी विद्यमान है। गलत कृषि नीतियों के कारण कृषि सम्बंधों में असमानता एवं शोषण का भाव जाग्रत हुआ। इसके कारण कृषकों को अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ा। भारत में कृषकों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।

 1991 के आंकड़ों के अनुसार भारत में 66.7 प्रतिशत श्रमिक कृषि कार्य एवं अन्य कार्यों में संलग्न हैं। वहीं 38.4 प्रतिशत खेतीहर मजदूर और 26.4 प्रतिशत पशुपालन मछलीपालन इत्यादी अन्य कार्यों में लगे हुए हैं। हमारे देश में 10.07 करोड़ परिवार खेती पर निर्भर हैं। यह संख्या देश के कुल परिवारों का 48 प्रतिशत है, जबकि 2016-17 में कृषि आधारित परिवार की औसत सदस्य संख्या 4.9 थी। यह संख्या राज्य दर राज्य अलग - अलग हो सकती है। 

यह राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास की एक रिपोर्ट से लिये गये आंकड़ें हैं। अंग्रेजों के शासनकाल में भी किसान आन्दोलन हुए हैं । जिनकी तह में जाकर देखा जाये तो किसानों का शोषण,कम मजदूरी,ज्यादा काम,काम के घण्टे अधिक,अतिरिक्त पैसा वसूली इत्यादी शामिल था। 

यही बढ़ता हुआ असंतोष धीरे - धीरे संगठित होकर जमींदारों व सरकार के विरोध में आन्दोलन के रूप में सामने आया। देखा गया है कि कृषकों व कृषि श्रमिकों को वर्ष भर रोजगार नहीं मिलता है। इसके कारण कृषकों में असन्तोष उत्पन्न हुआ। इस तनाव और असन्तोष का कारण किसान आन्दोलन के रूप में हमारे सामने उपस्थित है। कृषक आन्दोलन मूलतः शोषण,पतन व आर्थिक परतंत्रता के विरोध में उभरा है। 

कृषक असन्तोष का एक कारण यह भी है कि ऐसे भूमि स्वामी जो कृषि श्रमिक रखकर अपनी कृषि भूमि पर खेती करवाते हैं तथा उपज का अधिकांश भाग स्वयं के अधिकार मैं रखते हैं। यह ऐसे लोग हैं , जिन्होंनें कृषि कार्य करा ही नहीं। इसके साथ ही छोटे किसान जिनके पास स्वयं की कृषि भूमि होती तो है लेकिन वह उससे उतना उत्पादन तथा बचत नहीं कर पाते हैं जितनी कि उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये जरूरी है। इस प्रकार से हम देखते हैं कि भूमि तथा आय के साधनों का असमान वितरण भूमिहीन श्रमिकों में असन्तोष का कारण बनता है। और यही लोग आगे चलकर संगठित होकर आन्दोलन की और प्रेरित एवं अग्रसर होते हैं। 

कृषकों में जागरूकता की कमी के चलते कई ऐेसे कृषक संगठन भी आंदोलन की राह पर चल पड़े हैं। जो गैर कानूनी गतिविधियों में लिप्त तथा किसान हित की बात को दरकिनार रख आन्दोलनरत हैं। हम यह जानते हैं कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। वहीं भारत की कृषि को उन्नत बनाने के लिये कृषि से संबंधित यंत्रों एवं उपकरणों के बढ़ते उपयोग के कारण बेरोजगारी फैली है। तथा यह भी किसानों के असन्तोष का कारण बनी है। जिसके परिणाम स्वरूप बेरोजगार किसान आन्दोलन के माध्यम से आवाज उठा रहें हैं। किसान आन्दोलन राजनिति से प्रभावित हो गया या उसे राजनैतिक स्वरूप देने का प्रयत्न किया जाने लगा इसके कारण वैचारिक कांति उत्पन्न हुई। यह विचारणीय प्रश्न होकर एक गंभीर मुद्दा है।

 रमा निगम वरिष्ठ साहित्यकार  

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