इच्छाओं के पौधे

जिन्दगी से जब ख्वाहिशें 

मिट जाती है तो 

रह जाता है केवल खालीपन 

ठीक ऐसे जैसे किसी ने 

कुछ बड़ी शिद्दत से लिखकर 

उसके बाद रगड़-रगड़ कर 

मिटाया हो काफी देर तक 

ना चाहते हुए भी.... 

फिर मुड़े-तुड़े खाली पन्ने की जमीं पर 

उगने लगते हैं अवसाद, दुख, उदासी के 

कंटीले पौधे, भंयकर दर्द से भरे पौधे... 

जो ले जाते है उसे अंधेरों से भरी 

खोखली गुमनाम जड़ों में... 

और इसलिए ही शायद 

मानव स्वभाव भरा हुआ 

होता है अनन्त अतृप्त इच्छाओं से

तभी तो ख्वाहिशें पूरी हो  या ना हो 

इच्छाओं का एक पौधा हमेशा 

लगाए रखता है वह जीवन की 

अश्रुओं से गीली मिट्टी में... 

लगातार पौधों के सूखने 

या मुरझाने के बाद भी... 


वंदना अग्रवाल 'निराली' 

लखनऊ, उत्तर प्रदेश