ख़ूबसूरत एक नारी चाहिए
मैं हूँ तन्हा मुझको यारी चाहिए
सुन मुहब्बत मुख़्तसर सी ही नहीं
मुझको तेरी खूब सारी चाहिए
लाख चाहे भीड़ हो दिल के क़रीब
पर मुहब्बत बस तुम्हारी चाहिए
अस्ल की मैं राह चलकर थक गया
मुझकों ख़्वाबों की सवारी चाहिए
सुब्ह शामों की नहीं मसरूफ़ियत
बाम पर अख़्तर-शुमारी चाहिए
माना मेहमाँ चंद घड़ियों के यहाँ
फिर भी सर पर छत हमारी चाहिए
तप रहा है नफरतों से आदमी
उल्फ़तों की बर्फ़-बारी चाहिए
बस दुआ है क़त्ल करता आदमी
जीते जी होना भिकारी चाहिए
प्रज्ञा देवले✍️