सच में
आज बहुत गर्मी हैं न
बोला था तुमने
गाड़ी से उतरते
से ही,
हमें कहाॅं भान रहता हैं
तुम्हारे सानिध्य के
लिपटे पलों में
धूप -छांव
सर्द- गर्म
भूख-प्यास
दूर -पास
सुबह-शाम
किसी का भी,
अनायास ही तुम ने
काफी की टेबल पर रखें
हमारे स्काफ से
पोंछ लिया था ना
तरबतर पसीने से
भीगा चेहरा
ललाट से रलक कर
कान से फिसलकर
गर्दन पर आती
पसीने की बूंदें को,
ओ !हो धन्य हो
भाग्य पर इठला उठे थे
हम और स्काफ ,
हम स्नेहनील नेत्रों
से निहारते रहें
अपलक दोनों की
जुगलबंदी,
हल्के से मुस्कुराते हुए
तुम्हारे होंठ हिल उठे थे
तुम लाती हो ऐसी
गर्मी में हमें,
सर्द आह की शिला से
टकरा गया था हृदय
हमनें उठाकर
बातों ही बातों में
चुपके से पसीने से तर
स्काफ रख लिया था
पर्स में,
स्मरण और संस्मरण
की कई तह बनाकर
तुम नाराज़ हो
तब ही चलें गये हमसे
दूर बहुत दूर
फिर कभी न लौटने
के लिए
विस्मित से ठगे
तुम्हें जाते देख रहे थे,
जाते-जाते
तुम फिर भी
मेरे हिस्से छोड़ गये
स्काफ में
अनजाने ही
तुम्हारी देह गंध जो
गाती हैं कानों में मेरे
निनादते प्रेम गीत
आठों पहर,
हर पल महकती है
मेरे चहूॅंओर दशो दिशाओं में
मोगरा, जूहीं , चम्पा,चमेली,
गुलाबों से भी अलग
मधुबन से भी न्यारी
महकाती सुहसित करती
अंतसहृदय संग
मेरे हाथों को
मेरे पर्स को
वार्डरोब में रखे सभी वस्त्रों को
और तो और
चेहरे पर बांधते
ही स्काफ में से
तुम्हारी देह का
स्पर्श सहलाने
लगता है
प्रेम !
उलझी लटे
सिंदूरी ललाट
तुम्हारे ख्वाबों बोझिल पलकें
अधखुले होंठ
शर्माते कपोल
भर जाती है
सांसों में देह गंध
तुम्हारे पुरुषत्वं की,
तब
मेरे भीतर की
कंत वनीता
आमंत्रण पत्र लिए
खोजती है
तुम्हें
प्रेम समन्दर में
प्रेम नीर बिन प्यासी
मछली सी,
कुरंगी मृचिका
भीतर की कस्तूरी
बाहर खोजने लगती है
और तुम
उन्मुक्त परिंदे से
मेरे हृदय पिंजड़े से दूर
उड़ गए अनंत
आकाश की ओर कब के
कहीं और बसेरा करने को ......।
मंजु किशोर "रश्मि"