हर घड़ी घुट-घुट कर मरना पड़ता है।
कभी अपने लिए कभी अपनों के लिए,
कुरुक्षेत्र मन मैदान में लड़ना पड़ता है।।
भटक गया हूं विकराल कंटक वन में,
कई विचित्र आवाज़ सुनाई दे रही मुझे।
डर से कांप रहा है रोम-रोम,बदन अंग,
प्रार्थना कर चीखता पुकार रहा हूं तुझे।।
घनी अंधेरी रात में घिर गया मृत्यु बादल,
पल-पल दे रहा कोई बिजली के झटके।
पीट रहा था बारिश की बूंदे बनकर कोड़े,
तेज हवाएं उड़ते हुए जमीन पर पटके।।
पेड़ों में दिखा प्रेत छाया सफेद कंकाल,
कई अस्त्रों और शस्त्रों को धारण किए।
वार से घायल खून से लथपथ दम तोड़ा,
शिक्षाविद् शामिल अंतिम यात्रा के लिए।।
स्वयं बनकर सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी अर्जुन,
कर्म संशय में घिरा रहता हूं रात-दिन।
कोई कृष्ण बन दो मुझे गीता उपदेश,
कर्तव्यों का बोध हो मैं हो गया खिन्न।।
कवि- अशोक कुमार यादव मुंगेली, छत्तीसगढ़ (भारत)।