ख्वाहिशें बहका सपने हसीन थे ।
वो भी क्या दिन थे, वो भी क्या दिन थे ।।
वो मौला मद मस्त रंगीला
बचपन का अबीर उड़ाते थे !
कागज़ का नाव बनाकर
मोहल्ले की बारिशों में चलाते थे !!
कोई फिकर नहीं, न चेहरे मलिन थे ।
वो भी क्या दिन थे, वो भी क्या दिन थे ।।
कापी के पन्नों से जहाज़
बनाकर आसमान में उड़ाते थे !
भैया के साइकिल दुकान से
पुराने टायर चुराकर रेस लगाते थे !!
भोला भाला चेहरा मिजाज रंगीन थे ।
वो भी क्या दिन थे, वो भी क्या दिन थे ।।
दादी मां से परियों की
कहानी सुनते थे !
परियों की कहानी हो जाए सच
अपनी लल्ली को सजाकर परी बनाते थे !!
यार यारियों के लिए प्यार के मशीन थे ।
वो भी क्या दिन थे, वो भी क्या दिन थे ।।
गुल्ली डंडा खेल कर
खिड़की के शीशे तोड़ते थे !
कटी पतंग के पीछे पीछे
मीलों दौड़ते थे भागते थे !!
नित्य दिन करते जादू नवीन थे ।
वो भी क्या दिन थे, वो भी क्या दिन थे ।।
छुपन छुपाई, आसपास, सांप सीढ़ी
चोर पुलिस, लूडो कभी कबड्डी खेलते थे !
नानी के बटुए में कंचे छुपाते थे
व्यापार खेलकर अमीर जादे बन जाते थे !!
शहजादा स्वयं बनता वो बनते दुलहिन थे ।
वो भी क्या दिन थे, वो भी क्या दिन थे ।।
भाई छत पर जाकर एंटीना घुमाते थे
बहन की थाली से राखी का पैसा चुराते थे !
अपने ही घर में दरवाजे के पीछे छुपकर
मां को बहुत सताते थे !!
वह बचपन के दिन बड़े हसीन थे ।
वो भी क्या दिन थे, वो भी क्या दिन थे ।।
स्वरचित एवं मौलिक
मनोज शाह 'मानस'
manoj22shah@gmail.com