गर ठान लो तो पार हो तूफ़ान हज़ारों
मंज़िल पे पहुँच जाते हैं इंसान हज़ारों
संघर्ष करो धर्म के बस नाम पे इंसां
नफरत के जहाँ से मिले फरमान हज़ारों
लिखने लगे क्या ग़म को सुख़न से ज़रा सा हम
मिलने लगे हैं हमको तो सम्मान हज़ारों
मेहनत व मशक्कत के तो अंजाम यही है
तुम एक करो काम हो आसान हज़ारों
ढूँढोगे कहाँ तक उन्हें दुनिया में ए लोगों
रहते हैं नक़ाबों में जो शैतान हज़ारों
रिश्तों के ज़रा कर्ज़ थे हमपे कहीं थोड़े
हमने किए है मुश्त से भुगतान हजारों
क्या आती है फिर से वो संभलने से कभी भी
गफ़लत से चली जाती है जो जान हजारों
धर्मों से अलग करके लहू भी कहीं बँटता
क्यूँ बाँटें वो इंसां को अज्ञान हज़ारों
कुर्सी में बँटा मेरा वतन आज ज़रा क्या
आजाद वतन के हुए सुल्तान हज़ारों
तुम जान उठा रख दो हथेली पे ही चाहे
कुछ ख़ल्क़ भुला जाते हैं एहसान हज़ारों
कितने भी जतन कर लूँ ये होते नहीं पूरे
शिद्दत से मचलते भले अरमान हज़ारों
फिर भी है मेरे दिल में मुहब्बत ही मुहब्बत
गो होते मुहब्बत के हैं नुकसान हज़ारों
प्रज्ञा देवले✍️