दाद तुम क्यूँ दे रहे इनआम में
दिल ही तो लिक्खा था दिल को थाम के
आज शाइर हूँ गली का मैं अगर
और भी आएंगे कल इस नाम के
ख़ाक छाने जो गली की आज पर
रौनकें होंगे वो कल इस शाम के
मैं नहीं कहता ये दुनिया कहती हैं
लफ़्ज़ इनके होते है गुलफ़ाम के
कहने वाले तो समझते ही नहीं
किस तरह कटते हैं दिन कोहराम के
वाहवाही से भरा हो दिल मगर
घर नहीं चलता मेरा बिन दाम के
इक सुकूँ है ज़िंदगी को मेरे बस
जा रहा कुछ लफ़्ज़ देकर काम के
प्रज्ञा देवले✍️