अग्निपथः नाराजगी उचित, तरीका गलत

बेकारी एक ऐसा अभिशाप है जिससे मुक्त हो पाना किसी भी देश और उसकी सरकार के लिए सम्भव नही है। लेकिन समस्या है तो उसका समाधान भी है। कोरोना काल में बढ़ी बेराजगारी और लम्बे समय से सरकारी भर्तियों के न होने, तमाम निजी क्षेत्रों के रोजगारों में अधिसंख्य संख्या कमी आने के बाद देश में बेकारी की स्थिति चरमसीमा पर है। राज्यों के अधिनस्थ ठेका प्रथा में सेवायोजित लोगों की दुर्दशा की समाज में चाहुओर चर्चा है। ऐसे में हड़बड़ी कहे या फिर कुछ कि केन्द्र सरकार ने एक प्रकार से सेना जैसी सम्मानित सरकारी सेवा में तीन साल की ठेका प्रथा की घोषणा कर बेरोजगारों और लम्बे अरसे से देश सेवा कर एक सम्मानित जीवन यापन करने के सपने देख रहे देश के लाखों युवाओं की मंशा पर पानी फेरने का काम किया है। 

ऐसे में नाराजगी जाहिर करना स्वाभाविक बॉत है, लेकिन देश के युवा जिस तरह से कतिपय पार्टियों और लोगों के हाथों की कठपुतली बनकर अपनी सम्पति, अपने लोगों को निशाना बना रहे है उसें किसी भी तरीके से उचित नही ठहराया जा सकता। विरोध का तरीका अगर अहिंसात्मक हो तो भी सरकार को अपना फैसला बदलनें में मजबूर किया जा सकता है। एक साधरण तरीके से भी सरकार को इस बॉत का आभास कराया जा सकता है कि जो निर्णय सेना में भर्ती के लिए अग्निपथ के नाम से लेकर किया गया है वह देश के बेरोजगारों के साथ एक भद्दा मजाक है। इसके लिए अगर हर प्रदेश में युवा वर्ग सामूहिक रूप से बैठकर शांतिपूर्ण 24 घंटे का मूक प्रदर्शन करें तो इसे देश की सर्वोच्च अदालत और देश की जनता का समर्थन मिलेंगा। पिछले कुछ दिनों से हिंसात्मक रवैया अपनाया गया उसके पीछे एक सुनियोजित साजिश को नकारा नही जा सकता। 

लेकिन इस बॉत को भी नकारा नही जा सकता कि शुरूआत में उचित तरीके से शुरू हुए प्रदर्शन की सरकार की अनदेखी और खुफियातंत्र की नकामी के चलते चंद दिनों में जनता को अनावश्यक कष्ट और देश को अरबों रूपये की क्षति का सामना करना पड़ा। प्रदर्शन के बढ़ने के बाद केन्द्र सरकार द्वारा आयु में छूट, सेना सहित अन्य दर्जन भर विभागों में आरक्षण और राज्य सरकार द्वारा नौकरियों में प्राथमिकता देने की घोषणा के बाद भी युवाओं में इसका उतना व्यापक असर नही हुआ। इसके बाद अगर ड्रेमेज कन्ट्रोल में सरकार और सेना के आला अफसरों के स्पष्टीकरण को हवा निकालने के लिए वक्त का इंजतार कर रहे विपक्षी दलों ने सत्याग्रह आन्दोलन को हाथियार बनाया। यही नही कतिपय जगहों पर यह भी देखा जा रहा है कि मुठ्ठी भर कट्टरपंथी सोच के लोग युवाओं को भड़का रहे और हमारा खुफिया तंत्र उठ मुठ्ठी भर लोगों को शिकंजे तक पहुचाने में नाकारा साबित हो रहा है।सेना की नई रोजगार योजना के बाद हुए प्रदर्शन संकेत हैं कि युवाओं को बेहतर रोजगार चाहिए। 

निजी क्षेत्र या असंगठित क्षेत्र की अनिश्चितता अपनी जगह है और हमेशा रहेगी, पर सरकारी नौकरियों के प्रति लोगों की एक धारणा है। सरकारी नौकरी अतुलनीय सुरक्षा बोध कराती रही है। लेकिन अब समय के साथ यह नौकरी भी तेवर-कलेवर बदल रही है, तो विरोध स्वाभाविक है। अंततरू लोगों को विश्वास में लेकर चलना होगा, ताकि सरकार का दायित्व भी पूरा हो और लोगों की उम्मीदें भी। काम की गुणवत्ता, सेवा की विश्वसनीयता, रोजगार का आकर्षण, सेवा व उसके उपरांत मानवीय पक्ष का भी ध्यान रखना होगा, ताकि किसी भी काम करने वाले से उसका सौ प्रतिशत योगदान लिया जा सके। अतरू शासन-प्रशासन को जन-भावनाओं के अनुरूप रोजगार सुधार के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। 

आज उत्तर प्रदेश,बिहार जैसे राज्य में रोजगार एक बहुत बड़ा प्रश्न है, जिसका जवाब देने में हम सिलसिलेवार पिछड़ते रहे हैं। जब मार्च महीने में देश में बेरोजगारी दर 7.60 प्रतिशत थी, तब बिहार में यह 14.4 प्रतिशत थी। मतलब बिहार में राष्ट्रीय औसत से लगभग दोगुने बेरोजगार हैं। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के अनुसार, देश में अभी करीब तीन करोड़ बेरोजगार हैं, तो बिहार में अकेले 38 लाख से ज्यादा लोगों को नौकरी चाहिए। ऐसे में, जब रोजगार के इंतजार में बैठे युवाओं तक महज दस लाख नौकरियों की सूचना पहुंचती है, तो निराशा को समझना चाहिए। कुछ आंकड़े हैं, जो देश भर में बेरोजगार युवाओं की उम्मीदों को हवा देते रहते हैं। ज्यादातर सरकारी विभागों में पद खाली हैं, तो युवाओं को स्वाभाविक ही लग सकता है कि खाली पदों पर उनका हक है। समस्या यह है कि लगभग हर सरकार के समय खाली पद बेरोजगारों को चिढ़ाते रहे हैं। 

ऐसे में रेलवे के बाद सबसे ज्यादा नौकरी देने वाली सेना में भर्ती ठेके जैसी स्थिति वाली नई अग्निपथ स्कीम के खिलाफ देश के विभिन्न इलाकों में युवा सड़कों पर उतरना जायज तो कहा जा सकता है लेकिन तरीका उचित नही है। विरोध की तीव्रता उन राज्यों में ज्यादा है, जहां से सेना में सबसे ज्यादा भर्तियां होती हैं। जाहिर है, युवाओं के गुस्से के पीछे असुरक्षित भविष्य और बेरोजगारी से उपजी भविष्य की चिंता है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) के अप्रैल 2022 के आंकड़ों के मुताबिक 15 से 19 साल उम्र के पुरुषों में बेरोजगारी का स्तर 50 प्रतिशत था। इन विरोध प्रदर्शनों की धुरी बिहार है, क्योकि इस उम्र समूह में बेरोजगारी का प्रतिशत 76 पाया गया। अभी तक सेना में भर्ती इन युवाओं के लिए निश्चित करियर की गारंटी मानी जाती रही है। यही वजह है कि इन राज्यों के लाखों युवा कई-कई साल इसकी तैयारी में झोंक देते हैं। कोरोना के चलते दो साल वैसे भी बर्बाद हो गए। भर्ती की जो प्रक्रिया शुरू हुई थी, वह पूरी नहीं हुई। अब कहा जा रहा है कि ये अधूरी पड़ी प्रक्रियाएं निरस्त मानी जाएंगी। 

तीनों सेनाओं की सभी भर्तियां अब अग्निपथ स्कीम के तहत नए सिरे से शुरू की जाने वाली प्रक्रिया में की जाएंगी। युवाओं का गुस्सा भड़क उठने के पीछे इन तमाम कारकों की भूमिका है। सबसे बड़ी बात यह कि सेना की जो भर्ती युवाओं को आकर्षित करती थी, वह अब उन्हें चार साल के अंदर फिर से अनिश्चितता में डाल देने वाली योजना लग रही है। देखा जाए तो सरकार के आला सलाहकार नई नियुक्तियों या बड़े पैमाने पर रोजगार अभियान चलाने से हिचकते हैं, उन्हें लगता है कि सरकारी खजाना खाली हो जाएगा या ज्यादा कर्मचारी होंगे, तो विभाग का काम भी बढ़ जाएगा। 

आला अधिकारियों की चिंता या मजबूरी समझ में आती है, लेकिन खूब रोजगार देने का वादा करके सत्ता में आने वाले नेता भी बेरोजगारों को भुला देते हैं, तो आश्चर्य होता है। क्या बड़ी मात्रा में खाली पद इसीलिए रखे जाते हैं, ताकि वोट मांगते समय रोजगार के नाम पर युवाओं को बार-बार लुभाया जा सके ? लेकिन यह सब अब चलने वाला नही है। आने वाले समय में सरकार को अपने हर निर्णय लेने से पहले कई बार मंथन करने और जबाब देने का वक्त आ चुका है।