कुछ यूँही....

कुछ यूँही

बेवजह

तुमसे बात

करना चाहती हूँ।

यूँही बस

बेवजह

तुम्हें देर तक

देखना चाहती हूँ।

सुनना ज्यादा,

और

कहना कम चाहती हूँ।

कुछ तुम्हारें छिपे,

कुछ मेरे छिपे

आँसू बहते

देखना चाहती हूँ।

जो कह ना सकें

तुम आज तक

किसी से,

बस तुम्हारी

वही बातें

अपलक निहारते हुए

बस यूँही

बेवजह

सुनना चाहती हूँ।

सुन मेरे चाँद

मैं चाँदनी नही तेरी

जिस रात चाँद आता हैं

बस मैं तेरे

जीवन की वो

रात बनना चाहती हूँ।

तेरे उजालों की

चाहत नही मुझे

मैं सिर्फ

तेरे अंधेरो की

साथी बनना चाहती हूँ।

बस यूँही

बेवजह

मैं तेरी.....


गरिमा राकेश 'गर्विता'

कोटा राजस्थान