साहब के बारे में जितना कहा जाए समुंदर में बूँद के बराबर है। इसीलिए बातचीत को उनके आलीशान मकान तक सीमित करने में ही भलाई है। मकान के निर्माण में जात-पात, ऊँच-नीच, इंसान और इंसान के बीच अंतर कराने वाले सिमेंट का इस्तेमाल हुआ है। यह सिमेंट इतना दमदार है कि इसमें विद्रोह का एक बूँद जल लोगों को लड़ाने में दुगना साहस देता है। मकान की दीवारों में कराहते किसानों की आत्महत्या, भूख से बिलखते मजदूरों की आहों, पैसे-पैसे को मोहताज लोगों की दरिद्रता जितनी मजबूत ईंटों का इस्तेमाल हुआ है। इसकी छत गुलाम और चाटुकार मीडिया, खरीदे हुए जजों, रिश्वतखोर पुलिस, कुत्ते की तरह दुम हिलाने वाले जाँच अधिकारियों के बलबूते इतनी ऊँची उठ चुकी है कि यह दुनिया के किसी भी कोने से दिखायी देता है।
अब आप सोच रहे होंगे कि साहब के आलीशान मकान के लिए फंडिंग कहाँ से हो रहा होगा? तरकारी की तरह सरकारी कपंनियों जैसे रेल, हवाई जहाज, इस्पात उद्योग को बेचकर असीमित धन की उगाही की है। इस मकान की खासियत यह है कि यहाँ बैठे-बैठे पूरे इलाके को कंट्रोल किया जा सकता है। यहाँ साहब हवा से नहीं वाह-वाही से जियेंगे। घर में चौबीसों घंटों पानी के लिए लोगों के आंसुओं की व्यवस्था की गयी है। भूख लगने पर भोजन की जगह लोगों का भरोसा खायेंगे। यहाँ सप्ताह के सातों दिन, महीने के तीसों दिन और साल 365 दिन का एक ही नाम है – अच्छे दिन।
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’