मानव जीवन अपने आप में कितने रहस्य लिए हुए हैं जिसका हमें ज्ञात नहीं और कितने जन्म हम लेंगे फिर भी मानव जीवन के जन्म मृत्यु के रहस्य से हम खुद को अवगत नहीं करा पाएंगे । इसकी सच्चाई को जानने के लिए यह बहुत जरूरी है कि हम आध्यात्मिक हो अपने आत्मा के करीब हो,अपनी चेतना के करीब हो। अगर हम अपनी चेतना के करीब होते हैं तभी कुछ बातें जो मानव जीवन के रहस्य हैं समझ में आ सकते हैं मनुष्य अपने जन्म के बाद रिश्ते, नाते, परिवार मैं अपनी खुशियां ढूंढता है जाहिर सी बात है और कहां ढूढेगा। अपने कर्म को करता है धन एकत्रित करता है दुनिया समाज में अपना नाम बनाता है।लेकिन हजारों में कुछ लोग ही होते हैं जो यह सोचते हैं कि इस जीवन के बाद क्या है??? अर्थात मृत्यु के पार क्या है यह अनसुलझा रहस्य है और इस पर किसी भी वैज्ञानिक द्वारा कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है लेकिन हमारी भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिकता इस तरफ अपनी पकड़ बनाए हुए हैं जिसका प्रमाण हमें हमारे पौराणिक ग्रंथ "श्रीमद् भगवदगीता""गरुण पुराण" आदि देते हैं ।मृत्यु शाश्वत्य है जिससे कोई भी प्राणी नहीं बच सकता तो क्या केवल जन्म से मृत्यु तक के बीच की बातें हम सोचते रहे लेकिन कभी-कभी यह मन मृत्यु के पार की बातों तक भी जाने के लिए तैयार हो जाता है और जानना चाहता है सच क्या है??
कुछ कथा और कुछ पौराणिक ग्रंथों से तथ्य निकलकर सामने यह आता है कि मानव अगर जीते जी अपने मोह का त्याग क्या कर देता है साथ ही अपने कर्म फल का भी त्याग कर देता है तो मृत्यु के उपरांत उसे कष्ट नहीं होता। जीते जी मृत्यु का आभास कर लेना ही अध्यात्मिकता है ।जब मनुष्य मरता है और यमदूत उसके प्राण लेने आते हैं वह संसार में इतना उलझा रहता है कि मनुष्य बार-बार यम को मना कर देता है। यमदूत शरीर से प्राण निकालते हैं जितनी बार निकालते हैं उतनी बार वह चेतना उसी शरीर में प्रवेश करने का प्रयास करती रहती है।ऐसा भी होता है की वह दिनों दिनों तक अपने ही घर में या जिस स्थान पर उसकी मृत्यु हुई है वहां भटकता रहता है इस आशा में भटकता है कि उसे अपने लोग मिल जाएंगे ,उसे अपना परिवार अपना समाज मिल जाएगा, अपना धन ऐश्वर्य मिल जाएगा। ऐसी परिस्थिति में आत्मा ना तो इस लोक की हो पाती है ना ही परलोक की हो पाती है।वह बीच की परिस्थितियों में जिसे प्रेत योनि कहते हैं में बहुत समय तक फसी रह जाती है। ऐसा उसके मोह के कारण ही होता है ।अगर उसने अपने मोह से स्वयं को जीवन रहते काट लिया रहता तो मृत्यु के बाद त्वरित गति से अपने आगे की यात्रा में आत्मा निकल जाती। जीवित रहते हुए लालसा में लिपटा मनुष्य मृत्यु के बाद भी अपनी लालसा को छोड़ नहीं पाता है और वह बार-बार उसी शरीर में प्रकट होना चाहता है।
अतः जीवन रहते मोह ,लालच ,झूठ का त्याग कर हम चाहे तो स्वयं को पवित्र बना सकते हैं जिससे यह जीवन तो पवित्र होगा ही हम पर कोई दूसरे कर्म बंधन भी नहीं चढ़ेंगे और मृत्यु के उपरांत हमारी यात्रा भी सुगम हो सकेगी। हर एक व्यक्ति किसी न किसी आत्मिक उद्देश्य से ही इस धरती पर जन्म लेता है परंतु जन्म लेने के बाद वह ईश्वर से किए अपने वादे को अर्थात अपने सोल परपज को भूल जाता है और सिर्फ इच्छाएं बटोरता रह जाता है।(इच्छाएं और आवश्यकताएं यह दोनों दो अलग चीजें हैं लेकिन अधिकतर हम लोग इच्छाओं को ही अपनी आवश्यकता समझते हैं) इच्छाओ में भटकते भटकते एक दिन मृत्यु को प्राप्त हो जाता है और मृत्यु के बाद भी वह इच्छा से इतना भरा हुआ है कि वह प्रेत योनि में घूमता रहता है। अतः बहुत जरूरी है कि जीवित रहते आत्मा की यात्रा करें सत्य को साधे एवं अपने कर्म को साधे।
क्योंकि मानव का जीवन मृग के समान है
मानव का जीवन मृग समान,
पुलकित है देख जीवन मरीचिका
जिसमें मिथ्या सुख का भान।
यह अथाह सागर के जल पर
तृण का एक छोटा उपमान।
कभी है हर्षित कभी है लज्जित
दर्द के दिखते सदा निशान ।।
अंजनी द्विवेदी (काव्या)
देवरिया, उत्तर प्रदेश