बहुत मुश्किल है स्त्री होना

बहुत मुश्किल है 

स्त्री होना और जीना 

उसका व्यक्तित्व व चरित्र।

स्वयं की चेतना को

अचेत कर जीती है

तुम्हारी चेतना को !

अपने सम्पूर्ण ज्ञान को उडेल

देती है तुम्हारी रसोई में

तुम्हारी ही पसंद के व्यंजन

बनाने में और भुला देती है

स्वयं के स्वाद को !

विलीन हो जाती है तुममें

भुला कर अपनें अस्तित्व को।

अपना लेती है

तुम्हें पूर्ण रूप से

और जीती है तुम्हें

तुम्हारे जीवन को

तुम्हारे स्वाद को

तुम्हारे सपनों को

तुम्हारे ही अपनों को।

वो जिसे तुम

कहते हो अर्द्धांगिनी

परन्तु तुम जिसके सर्वस्व हो

तुमसे इतर कुछ भी नही चाहा।

कुछ भी नही सोचा !

हा यदि कुछ सोचा तो

तुमसे ही जुड़ कर !

कुछ चाहा तो तुम्हारी ही

पूर्णता और पवित्रता !

बस यही की कभी

तुम भी महसूस करो

उसका स्त्रीत्व व समर्पण।

कभी तुम भी तो दो

अग्नि परीक्षा।

कभी बन सकते हो

तो बनो अर्धनारीश्वर !

फिर जी सके वो भी अपना

स्त्रीत्व और कह सके गर्व से

मैं सहचरी हूँ प्रकृति हूँ,

मैं भी एक कृति हूँ !

मैं सृष्टि की संचालिका

एक  नारी तुम भी सगर्व

कह देना मैं पुरुष हूँ

सहचर प्रकृति का !

अपूर्ण हूँ होकर तुमसे विरत

मैं पूर्ण हूँ तुम्हारी पूर्णता से !

क्योंकि तुम मेरी सहचरी हो।


नीरजा बसंती

गोरखपुर, उत्तरप्रदेश