कभी रौशनी ढूंढता हूं,

कभी रौशनी ढूंढता हूं,

सितारों को जुगनू समझता हूं !

कभी रौशनी ढूंढता हूं,

सितारों को जुगनू समझता हूं,

चांद भी सो रहा कहीं पर

शायद बादलों के पार यहीं पर

मुझे पता नहीं !

मैं क्यों ढूंढू उसे, वो खुद बाहर

आये वह आना चाहता हैं तो,

उसे बिखेरनी है अपनी आभा,

चांदनी मगर मर्यादा में रहना होगा,

रौशन जहां को करना होगा,

जो काम चांद का है वह सितारों

का नहीं, चांद की चांदनी से

संवर जाती हैं, धरती, निखर जाती

हैं प्रकृति और प्रफुल्लित हो जाता

है हमारा तनमन, जीवन !

कभी रौशनी ढूंढता हूं,

सितारों को जुगनू समझता हूं,

चांद भी सो रहा कहीं पर

शायद बादलों के पार यहीं पर

मुझे पता नहीं !

- मदन वर्मा " माणिक "

  इंदौर, मध्यप्रदेश