हम जन्मों का वादा निभाते रहे,
वो हमें शूल विष का चुभाते रहे।
नयन के ताल में तैरते स्वप्न थे,
वो हमें नींद से ही जगाते रहे।
चाहते थे शिखर हम प्रगति का छुए,
वो हमें सीढ़ियों से गिराते रहे।
गिरवी साँसें बनी दीप थी गेह का,
वो हमें ही अँधेरा बताते रहे।
उलझन में सदा गुनगुनाते थे हम,
मुश्किलें वो हमारी बढ़ाते रहे।
कभी माँगी नहीं नेह की बूँद भी,
वो हमें मरू सागर दिखाते रहे।
आस थी कि बदल जायेंगे एक दिन,
वो हमें रोज पल पल जलाते रहे।
धैर्य की सीमा हमने नहिं पार की,
वो हमें मार पत्थर हटाते रहे।
सीमा मिश्रा, बिन्दकी, फतेहपुर