ग़ज़ल : "ग़ुफ्तग़ू का सनम सिलसिला ले गई"

दिल हमारा था उसकी अदा ले गई

पहुँचे थे उसका लेने बचा ले गई


छोड़ कर वो बहारें ख़िज़ा ले गई

कुछ बचा ही नहीं था वो क्या ले गई


इक वफ़ा की थी ज़िंदा सी तस्वीर वो

बेवफ़ा हम हुए वो वफ़ा ले गई


ढूँढते ही रहे खुद को खुद में कहीं

वो मुहब्बत हमारा पता ले गई


इक ख़ता थी हमारी वबा की तरह

हम दवा ले रहें वो दुआ ले गई


क्या गई वो हमारे जहाँ से ज़रा

ज़िंदगी से हमारी नशा ले गई


बाद उसके कोई बात होती नहीं

गुफ़्तगू का सनम सिलसिला ले गई


प्रज्ञा देवले✍️