क्यों यह समाज बेटों को समझ नहीं पाता है?
दर्द इन्हें भी होता दिखाना इन्हें न आता है,
कर्ज उतारने को पिता का अपना लहु बहाता है।
राम के जैसे हँसी खुशी वनवास ये बिताता है,
कृष्ण के तरीके कंस को मार गिराता है,
आँच ना आये मात पिता पर,अनल से लड़ जाता है।
पुत्र को पुत्र समझ कर देखो,हर मुश्किल हल हो जाता है।
मत सोचो विवाहोपरान्त वह बदल जाता है,
बदल हम हैं जाते चक्की जैसे पुत्र पिस जाता है,
बात बात में ताने देते,चक्रव्यूह में वो फँस जाता है।
पुत्र कभी कुपुत्र ना होता हमसे ही संस्कार सीख पाता है,
बोते जब हम सन्मार्ग के बीज सुखद फल उगाता है।
दोष ना दो प्यारे पुत्र को दुनिया का रखवाला है
मात,पिता में निहित उसके स्पन्द वह राजदुलारा है।
रीमा सिन्हा
लखनऊ-उत्तर प्रदेश