मानवता हो गयी लुप्त,
खोये सब मृगतृष्णा की जाल में
भावना हुई विलुप्त।
आधुनिक मानव हुआ पाषाण ,
धन वैभव के पीछे अभिलिप्सित।
मानसिकता में आया परिवर्तन,
लोभ मद में हैं सब कुंठित।
एक ही घर में रहकर भी अजनबी,
मोबाइल में घुसे पड़े हैं सभी।
अपनों को छोड़ गैरों से नाता जोड़ रहे,
आभासी दुनिया के मायाजाल में ग्रसित।
कृत्रिमता भा रही है सबको,
नैसर्गिकता से टूट गया है नाता।
चौबीस घण्टे बस पैसों के पीछे,
बाह्य खुशी, भीतर अवसादित।
रीमा सिन्हा (लखनऊ)