मुहब्बत से उनकी ज़ियाँ हो गया हूँ
जहां पे मै खेला था बचपन सुहाना
उसी बाग का बागबाँ हो गया हूँ
यूँ आँखों में चुभने लगा हूँ जहाँ की
की चुल्हे का जैसे धुआँ हो गया हूँ
ख़ुदा ने है बख़्शी बुलंदी है इतनी
चमकती हुई कहकशाँ हो गया हूँ
सभी तो है अपने ये साँसें भी अपनी
मगर अजनबी मैं यहाँ हो गया हूँ
ग़मों ने दी दस्तक मेरे हँसते दिल पर
बहारों के घर में ख़िज़ाँ हो गया हूँ
मुहब्बत के अल्फ़ाज़ से मैं जहाँ में
ख़ुदा तो नहीं पर दवाँ हो गया हूँ
प्रज्ञा देवले✍️